चुप रह जाने की पुरानी आदत,
नहीं रख पाना अपनी बात,
मन ही मन,
बारम्बार दुहरा कर भी,
उसे भीतर से करती है परेशान।
लगता है,
बोलने से शायद,
नाराज़ होंगे लोग,
और न बोलने से,
नहीं रख पाना अपनी बात,
मन ही मन,
बारम्बार दुहरा कर भी,
उसे भीतर से करती है परेशान।
लगता है,
बोलने से शायद,
नाराज़ होंगे लोग,
और न बोलने से,
बढ़ती जाती है,
अपनी ही बेचैनी।
यह संकोच का भाव,
जो कई बार उपजा है,
विनम्रता से,
जो पीछा ही नहीं छोड़ती है उसका,
तो कई बार आदर-सत्कार के भाव से,
क्योंकि आदरणीय सज्जन को,
आहत कर,
हो जाती है,
स्वयं भी आहत।
या फिर,
आ जाता है बीच में,
कभी प्रेम,
तो कभी क्रोध।
दोनों ही हैं उसमें,
अतिरेक की सीमा को,
स्पर्श करती मात्रा में।
हर बार पी लेना चाहती है वह अपना क्रोध,
और..........
छुपा लेना चाहती है प्रेम भी,
क्योंकि प्रेम जाहिर करना,
उसे आता नहीं,
और,
क्रोध प्रकट करना उसे ख़तरे से खाली नहीं लगता।
अपनी ही बेचैनी।
यह संकोच का भाव,
जो कई बार उपजा है,
विनम्रता से,
जो पीछा ही नहीं छोड़ती है उसका,
तो कई बार आदर-सत्कार के भाव से,
क्योंकि आदरणीय सज्जन को,
आहत कर,
हो जाती है,
स्वयं भी आहत।
या फिर,
आ जाता है बीच में,
कभी प्रेम,
तो कभी क्रोध।
दोनों ही हैं उसमें,
अतिरेक की सीमा को,
स्पर्श करती मात्रा में।
हर बार पी लेना चाहती है वह अपना क्रोध,
और..........
छुपा लेना चाहती है प्रेम भी,
क्योंकि प्रेम जाहिर करना,
उसे आता नहीं,
और,
क्रोध प्रकट करना उसे ख़तरे से खाली नहीं लगता।