Thursday 4 February 2016

अपनी बात

चुप रह जाने की पुरानी आदत,
नहीं रख पाना अपनी बात,
मन ही मन,
बारम्बार दुहरा कर भी,
उसे भीतर से करती है परेशान।
लगता है,
बोलने से शायद,
नाराज़ होंगे लोग,
और न बोलने से,
बढ़ती जाती है,
अपनी ही बेचैनी।
यह संकोच का भाव,
जो कई बार उपजा है,
विनम्रता से,
जो पीछा ही नहीं छोड़ती है उसका,
तो कई बार आदर-सत्कार के भाव से,
क्योंकि आदरणीय सज्जन को,
आहत कर,
हो जाती है,
स्वयं भी आहत।
या फिर,
आ जाता है बीच में,
कभी प्रेम,
तो कभी क्रोध।
दोनों ही हैं उसमें,
अतिरेक की सीमा को,
स्पर्श करती मात्रा में।
हर बार पी लेना चाहती है वह अपना क्रोध,
और..........
छुपा लेना चाहती है प्रेम भी,
क्योंकि प्रेम जाहिर करना,
उसे आता नहीं,
और,
क्रोध प्रकट करना उसे ख़तरे से खाली नहीं लगता। 

क्यों भला


सुन-सुन कर पक गए हैं कान……….
भीतर जाओ,
यहाँ मत बैठो,
धीरे चलो,
आहिस्ता बोलो,
ठहाके मत लगाओ,
मुस्कुराकर हँसो।
 क्यों भला ?
क्यों न हिरनी की तरह वो कुलांचे भरे,
उछले-कूदे,
दौड़े-भागे।
क्यों न खुलकर प्रकट करे,
अपने मनोभाव।
क्यों न खिलखिलाकर हँसे,
एक स्वाभाविक उन्मुक्त हँसी।   
उसकी हँसी-बोल,
आने-जाने,
उठने-बैठने और चाल पर,
क्यों हो दूसरों का नियंत्रण ?
क्यों भला ?
उसे अच्छी और बुरी होने का,
प्रमाण देंगे,
वे लोग,
जिनकी उच्छृंखलता के उदाहरण,
दिखाई पड़ते हैं,
प्रतिदिन।
नहीं दबेगी वह,
इन जुमलों से,
नहीं देगी किसी को अधिकार,
किसी को भी नहीं,
उसे किसी साँचे में ढालने का।
क्यों भला ?
वह जैसी है,
वैसी ही रहेगी,
जिएगी खुलकर,
अपना स्वाभाविक जीवन।  







कोशिशें


बहुत दुनियादारी तो,
नहीं आती उसे,
पर,
इतना जान चुकी है………
कि
गुलामी तो गुलामी ही है,
चाहे वह अपनों की ही क्यों न हो?
चाहती है वह भी अपनी मर्ज़ी से जीना।
हो सकता है,
बहुतों को,
उसकी ये जिद,
गुस्ताखी लगे,
पर दूसरी तरफ़,
हैं ऐसे भी बहुत……..
जो सराहते हैं,
उसकी कोशिशों को।
औरों की अपेक्षाओं पर,
खरी उतरने के लिए,
उसने जो भी किया,
वो सदैव कम पड़ा,
अब तो उसकी कोशिश है,
आत्मनिर्भरता की ओर,
कदम बढ़ाने की,
क्योंकि,
अब उसने अपनी बुद्धि और,
 श्रम की कीमत जान ली है,
पराश्रित हो,
नहीं प्रसन्न हो जाया,
करेगी.......
वस्त्राभूषणों  से,
गुड़िया सी जब भी,
सजाई गयी है वह,
उसकी क्षमताओं को,
कम ही आँका गया।
जीवन अनुभव से यह भी,
जान चुकी है,
कि दोहरे मानदंडों को,
अब और स्वीकार करने,
और सांचों में ढलने से,
कहीं बेहतर है,
अपनी अस्मिता को,
स्वीकृति देना।








कठिन यात्रा


चलते-चलते थककर गिर जाना,
संभलकर उठना,
हिम्मत जुटा,
फिर चलना।
आखिर,
कभी तो पहुँचेगी ही,
अपने गंतव्य तक वह भी।
सुनती आई थी,
बचपन से ही,
सबकुछ है,
इसी मन के ऊपर,
मन हारे तो ही कोई हारता है।
आखिरी साँस तक भी,
नहीं हारने देगी,
अपने मन को वह।
लड़ेगी,
जूझेगी,
संघर्ष करेगी,
लेकिन बना कर ही रहेगी,
अपनी एक स्वतंत्र पहचान।
अब और नहीं पहचानी जाएगी वह,
पिता,भाई,पति या पुत्र के नाम से,
एक दिन बना कर ही रहेगी,
इस दुनिया में,
अपनी एक खास पहचान,
जब वह जानी जाएगी,
सिर्फ़ और सिर्फ़,
अपने नाम से।
इस यात्रा में,
वह थकेगी,
पर,
रुकेगी नहीं,
गिरेगी..........
पर,
हर बार,
उठ कर चल देगी,
बची दूरी को तय करने के लिए।   









मत करो प्रशंसा


नहीं चाहती हैं अब,
और प्रशंसा स्त्रियाँ,
जान चुकी हैं,
मीठे बोलों में छुपी,
कड़वी सच्चाई को।
पहचान चुकी हैं,
अदृश्य बंधनों की कसावट को।
हाँ..............
प्रशंसा कर-करके,
उन्हें प्रसन्न रखने के यत्न,
अब हो गए हैं,
अत्यंत पुराने।
अच्छी बेटी,बहन,बहू,पत्नी और माँ बनने की बड़ी कीमतें,
वे अदा कर चुकी हैं,
पहले ही।
क्या उनके कर्तव्यों का,
है कहीं कोई अंत ?
कोई बताए तो सही।
रोपाई-निराई से कटनी तक,
कुटाई-पिसाई से रसोई तक,
बच्चों का लालन-पालन,
बुजुर्गों की सेवा ,
पशु-पालन,पानी भरना,
बर्तन-कपड़ों की धुलाई तक।
करती चली जाती हैं,
मुस्कुराते हुए जीवन भर,
पर,
नहीं मिलता,
इन सबके बदले,
कोई खास अधिकार।
बस!
यदा-कदा, कर दी जाती है,
थोड़ी सी प्रशंसा,
हाँ...
पूरा ध्यान रखा जाता है कि,
प्रशंसा कहीं अधिक न हो जाए।
क्योंकि,
भय है कि,
प्रशंसा की मात्रा बढ़ने से,
उनका मन भी बढ़ सकता है,
और,
इस तरह वे,
सिर चढ़ सकती हैं।
अब बहुत हुआ,
बस !
बंद किया जाए,
झूठी प्रशंसा कर,
उन्हें कमजोर बनाने का सिलसिला।
यदि सचमुच कृतज्ञता है,
तो दो सही मायने में समानता।
बहुत सुन चुकी हैं वे,
अपने रूप की प्रशंसा,
जो स्वीकारते हो,
सचमुच,
उसके अस्तित्व को,
तो करो सम्मान,
उसकी बुद्धिमत्ता का।
बहुत हो चुकी,
उसकी पाक-कला की प्रशंसा,
यदि वाकई है कद्र?
तो करो सम्मान उसकी कर्मठता का और –
छोड़ दो पूछना यह सवाल-
आखिर! दिन भर करती क्या हो?   






बाबुल की बिटिया


पिता के आते ही,
दौड़कर थमाती थी,
पानी से भरा लोटा।
कुएं पर जाकर,
धो लाती थी,
पसीने से भींगा,
उनका कुर्ता,गंजी और गमछा।
सुबह निकलते वक्त,
चमकाकर उनके जूते,
अपनी चुन्नी की किनारी से,
पहनाती थी,
अपने हाथों से।
जाड़े के दिनों में,
दौड़कर .........
देती थी उन्हें,
बन्डी और दुशाला,
गर्मी में घंटों,
झलती थी,
कोमल हाथों से पंखा,
पर,
पिता शाम में आते ही,
भैया को उठाते थे गोद में।
माँ से कहा –
तो उन्होंने समझाया-
“बिटिया !
तेरे पिता करते हैं तुझसे बहुत प्यार.......
पर अब तू बड़ी हो गयी है न
इसीलिए............”
मान ली थी माँ की बात,
पर,
जब शहर जाकर,
पढ़ने की बारी आई,
तो पिता ने,
भेजा भाई को।
माँ ने फिर,
आवाज़ में शहद घोल कर समझाया-
“बिटिया !
तेरी पढ़ाई प्राइवेट करवा देंगे।
दो को शहर भेजकर पढाने के,
नहीं हैं पैसे।
बहुत रोई उस दिन,
बहुत रोई।
एक महीने के भीतर ही,
पिता को,
अम्माँ से कहते सुना-
“कर आए हैं .........
बिटिया का रिश्ता पक्का,
पराई अमानत,
जितनी जल्दी उठे,
उतना ही शुभ।”
फिर से……
बहुत रोई उस दिन,
दिन से रात तक,
रोती रही,
बस !
रोती ही रही।  

अंगूठी बनाम उंगली

हाँ स्वीकार करती हूँ,
एकतरफा नहीं था तुम्हारा प्यार,
समझा था मैं ने भी तुम्हारे प्यार को,
बहुत चाहत थी तुम्हारे लिए,
मेरे हृदय में भी।
पर फिर भी,
मना कर दी,
तुम्हारी सगाई की अंगूठी मैं ने,
जानते हो क्यों?
क्योंकि,
तुम लेकर आए थे,
जो कीमती अंगूठी उस दिन मेरे लिए,
वो तुम्हारे लिए इतनी बेशकीमती थी,
कि उसकी चिंता हो गयी थी,
मुझसे ज्यादा जरूरी।
बार-बार पॉकेट में,
हाथ डाल तुम, ,
सुनिश्चित कर रहे थे उसकी उपस्थिति।
उस दिन कहाँ देख पाये थे तुम,
एक बार भी गौर से मेरी तरफ। 
डर गयी थी मैं बुरी तरह...........
भीतर ही भीतर।
मैं अल्हड़ लड़की,
नहीं संभाल सकती,
इस कीमती अंगूठी का बोझ,
नहीं सह सकती,
एक वस्तु के बरक्स,
मेरे व्यक्तित्व की ऐसी उपेक्षा।
हाँ............सुन लो,
मैंने सगाई कर ली है,
एक अनजान युवक से,
जो आया था,
अचानक ही,
एक रिश्तेदार के माध्यम से,
तुम्हें यह बता दूँ कि
उसकी अंगूठी थी बेहद सस्ती,
और उसका ध्यान,
अंगूठी संभालने पर नहीं,
मेरी उंगलियों पर था,
उसकी आँखों में झलक रही थी,
मेरे लिए प्रशंसा,
और .........
अत्यंत विनम्रता पूर्वक माँगा था उसने,
मेरे पिता से मेरा हाथ।
















ज़माना बदला है


ज़माना बदला है,
हाँ...........
ज़रूर बदला है।
अब नहीं होता,
लड़के-लड़की में भेद-भाव,
पर.........
कब बदलेगा ज़माना?
उन लड़कियों के लिए,
जिन्हें ठिठुरती ठंड,
और
तपती धूप में,
निबटाना पड़ता है,
दस-दस कोठियों का काम,
ताकि वे अपने भाई के,
स्कूल की फीस भर सकें।
भला उन लड़कियों के लिए,
कब बदलेगा ज़माना?
जो स्कूलों-कॉलेजों में,
सुबह-शाम झाड़ू-पोंछा,
लगाती हैं,
परीक्षा के दिनों में,
अपने हमउम्र बच्चों को,
परीक्षा कक्ष में,
थमाती हैं,
पानी का ग्लास।
घर लौट कर   
करती हैं,
सारा काम,
और............
उनकी गाढ़ी मेहनत की कमाई,
अक्सर,
कम पड़ती है,
घर की ज़रूरतें पूरी करने के लिए।
कब बदलेगा ज़माना,
उन लड़कियों के लिए,
जो दफ़्तरों में,
ओवरटाइम और घर में फुलटाइम काम करके,
घिसती चली जाती हैं,
खो देती हैं पूर्णतः,
अपना स्वास्थ्य और सौंदर्य,
दे देती हैं अपनी समस्त खुशियों की कुर्बानी,
घर की जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए,
पचास की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते,
गुजर जाते हैं माता-पिता,
भाई-बहन खो जाते हैं,
अपनी-अपनी दुनियाँ में,
और रह जाती हैं,
वे अकेली।
कब बदलेगा ज़माना?
उन नवजात कन्या-शिशुओं के लिए,
जिनके जन्म का उत्सव इस दिखावे में,
मनाया तो जाता है-
कि देखो जी!
हम नहीं करते,
भेद-भाव बेटे-बेटी में,
पर उस उत्सव में नहीं होता वैसा उल्लास।
आखिर,
कब बदलेगा ज़माना?
उन बड़े घर की लड़कियों के लिए,
जहाँ नहीं है,
कोई गरीबी,मजबूरी और अभाव,
पर,
उन घरों के लोगों की नाक,
इतनी नाज़ुक होती है कि
बेटी के सर उठाकर चलते ही,
कटकर गिर जाती है।
हाँ सचमुच बदल गया है ज़माना,
अब नहीं होता,
लड़के-लड़की में भेद-भाव।   
  







सुप्त ज्वालामुखी


बचपन से सुनती आई है,
चुप रहो,धीरे बोलो,
ठहाके न लगाओ,
बस मुस्कुराओ।
बड़ों को जवाब मत दो,
बस जी हाँ कहो,
हालांकि भीतर से,
खून खौल जाया करता है उसका,
यह सब सुनकर,
पर जाने-अनजाने,
चाहे-अनचाहे,
चुप रह जाना,
सह जाना,
नरमी से बात करना,
पहले उसने सीखा........
फिर ........,
अनजाने ही,
अभ्यास किया,
और फिर धीरे-धीरे,
बनता चला गया यह सब,
उसके बाह्य स्वभाव का अंग।
समय के क्रम में,
खौलता खून,
बदलता गया लावे में,
बन गयी वह एक सुप्त ज्वालामुखी,
मुस्कुराना आ गया है उसे,
जी लगाकर बोलना भी,
सीख ही गयी है,
चुप्पी को बना चुकी है,
कबसे अपनी आदत,
इसी पुरानी आदत के असर में,
अब नहीं कर पाती है,
वैचारिक-बहस,
यह बेबसी करती है,
उसे अपनी नज़रों में अपमानित,
पता नहीं क्यों,
डरने लगी है.....,
बिना किसी बात के भी,
महसूस करने लगी है,
अपने चारों ओर,
काँटों के घेरे को,
असुरक्षा की भावना,  
बढ़ती ही जा रही है।  
तंग आ चुकी है,
मन ही मन,
इस तथाकथित,
अर्जित विनम्रता से,
जो बन चुका है अब,
उसके स्वभाव का अनचाहा,
परंतु अभिन्न अंग,
और यह आदर-भाव का प्रशिक्षण,
नहीं करने देता है,
उसे कुछ भी,
अपने मन का,
घुट्टी में पिलाया गया है कि,
उसकी गतिविधि,व्यवहार.........
और पहनावे से तय होती है,
खानदान की प्रतिष्ठा।
बाप-दादा की नाक बचाना है,
उसका एकमात्र परम-पुनीत कर्तव्य,
सम्मान का मतलब है......
हाँ में हाँ मिलाना।......
सवाल पूछने को कहते हैं,
बदतमीजी.........
और दब्बू बन जाने का मतलब है,
बड़ों का सम्मान,
मर्यादा का अर्थ बताया गया है,
तर्क से वैर। 
ढल जाना है उसे,
उनके बनाए साँचे में,
चाहे ढलने के लिए पिघलकर, 
करनी पड़े जान भी क़ुरबान।
नहीं कर सकती किसी निर्णय में हस्तक्षेप,
चाहे निर्णय उसके जीवन का ही क्यों न हो ?
बढ़ती जाती है,
भीतर लावे की खलबली,
पूरी ताकत से,
रोकती है,
ज्वालामुखी को फटने से,
ये बात अलग है कि,
मूलतः वह हर आडंबर की,
घोर-विरोधी है।  
अपने लंबे अनुभव से जान चुकी है,
हर रस्म की कटु सच्चाई को,
पर,
दिखती है,
बिल्कुल शांत।  
सब कहने लगे हैं,
अब सयानी उसे,
पर वह जानती है,
एक दिन लावा,
फूटेगा ज़रूर,
न जाने दिन और समय क्या होगा,
पर,
वह स्वाभाविक विस्फोट,
नहीं रुक पाएगा,
किसी भी कृत्रिम आवरण से,
बेशक वह आवरण बुना गया हो,
बेशकीमती रेशम के धागे में,
सोने के तार और,
हीरे-मोती गूँथकर।