Friday 29 April 2016

न्याय का मंदिर

ये क्या सुन रही है वह?
ये है जज का निर्णय,
इसी निर्णय के लिए,
अब तक,
संघर्ष कर रही थी वह?
ऐसे होते हैं,
न्याय के देवता?
इतनी बड़ी पदवी…….
न्यायाधीश !
और सोच?
इतनी संकीर्ण?
क्या ऐसा ही लिखा है,
कानून की किताबों में?
और यदि हाँ…….
तो वो पृष्ठ पलटकर,
दिखाएँ मुझे?
वो क्रोध से काँप रही थी,
पसीने से तर - बतर थी,
न्यायाधीश की कुर्सी की तरफ,
जिस तेजी से बढ़ी थी,
लगा था,
उसका खून पी जायेगी,
चार - चार लोगों ने,
पकड़ रखा था उसे,
वह खींचती चली जा रही थी,
उन चारों को अपने साथ।
निराशा और क्रोध के आवेग ने,
उसके शरीर की,
तमाम कोशिकाओं को,
सक्रिय कर दिया था,
क्रोधाग्नि की लपटें,
आँखों के रास्ते,
बाहर प्रकट हो रही थी।
कोशिकाओं की,
अति सक्रियता से,
उपजी ताकत,
चार लोगों को,
अपने साथ घसीट रही थी।
उसकी जलती आँखों से,
घबराकर न्यायाधीश,
अपनी कुर्सी से उठ,
तेजी से भागा,
सीधा गाड़ी में जा बैठा,
और ड्राईवर को,
गाड़ी चलाने का,
इशारा किया।
गाड़ी के पीछे,
थोड़ी दूर तक,
छटपटाती,
चिल्लाती हुई,
पूरी ताकत से,
स्वयं को,
लोगों की पकड़ से,
छुड़ाती हुई,
चलती गयी थी वह।
अत्यन्त ऊँची आवाज में,
चीख कर बोली थी -
“अरे कमीने,
तू जज कहता है,
खुद को,
चुल्लू भर पानी में,
डूब मर मुए।
उस नीच से मुझे,
शादी ही करनी होती,
तो पिछले पाँच सालों से,
इस न्याय - मंदिर के दरवाजे पे,
अपना मत्था टेके,
क्यों खड़ी थी?
न्याय का मतलब,
पता नहीं,
और,
चले हैं,
न्याय करने।
तभी उसकी नज़र,
उस पर पड़ी,
जिसने उसके जीवन में,
अँधेरा,अपमान,बदनामी,
उपेक्षा के इतने दाग दिए थे,
कि पलक झपकते ही,
उसके जीवन से,
अच्छा कहा जाने योग्य सबकुछ,
छिन गया था।
एक दिन पहले तक,
पूरा गाँव उस पर गर्व करता था,
आँगन में नीम के पेड़ के नीचे,
गाँव भर की औरतें इकट्ठी होतीं,
कोई उससे लिखना - पढ़ना सीखती,
तो कोई उसकी माँ से,
अचार, पापड़ और,
तरह - तरह के व्यंजन की विधियाँ सीखती।
जिस किसी को भी,
हिसाब जोड़ने में,
मदद की जरूरत होती,
उसके पास आती,
माँ - बेटी की खूब,
सराहना होती,
औरतें मुस्कुराकर कहतीं -
इनके बगैर तो,
एक भी काम नहीं हो पाता।
इस घटना के बाद,
सबने मुंह फेर लिया था,
जिस किसी से भी,
नज़र मिलाने की,
कोशिश करती ..
मुँह घुमाकर चल देतीं,
वो समझाना चाहती थी,
कि उसकी कोई गलती नहीं,
पर कैसे?
गाँव के लोगों ने,
समाज - बहिष्कृत करने की,
माँग रखी,
पंचायत ने,
गाँव वालों का समर्थन किया,
उसे पूरा विश्वास था,
जिस दिन उसे,
कोर्ट से न्याय मिलेगा,
सारे दाग धुल जाएंगे,
फिर से वो पहले जैसी,
ज़िन्दगी जी पायेगी।
वही नीच,
जिसने उसे कहीं का नहीं छोड़ा था,
और जिससे,
शादी कर लेने का फैसला,
अभी थोड़ी देर पहले,
जज ने सुनाया था -
सामने से चला आ रहा था,
कोर्ट के फैसले की ख़ुशी,
उससे छुपाये नहीं छुप रही थी,
उसे यकीन था,
थोड़ी हील -हुज्जत के बाद,
वह उससे शादी के लिए राजी हो जाएगी,
वैसे भी इतनी बदनामी के बाद,
कोई और लड़का उससे,
शादी को क्यों तैयार होता?
शेरनी की तरह,
गुर्राती हुई वह,
उसकी ओर,
झपटी थी,
घबराकर,
सर पर पाँव रखकर,
भागा था।
वह चिल्लाकर बोली थी -
जैसा तू है,
वैसा ही ये कुत्ता जज है,
तेरी और उसकी,
मानसिकता में,
कोई अंतर नहीं।
तूने क्या समझा था -
पैसे से कुत्ते जज का,
मुँह भर के,
तू बच जायेगा?
वो कमीना,
समझौता करवा कर -
मुझे तेरी बीबी बनने पर,
मजबूर करेगा,
आक्…….थू…….
थूकती हूँ मैं,
ऐसे जज पर,
और,
उसके ऐसे फैसले पर,
मुँह छुपाने की जरूरत,
मुझे नहीं,
तुझे,
कमीने जज को,
और,
उन सबको है,
जिनकी ऐसी सोच है….,
जो बलात्कारी से विवाह करवा कर,
न्याय की स्थापना करते हैं।
अरे मैं जज होती,
तो इतनी देर,
तू फाँसी पर,
झूल चुका होता।
इस कोर्ट में,
बड़ी उम्मीदें लेकर आई थी,
सोचती थी,
ये न्याय का मन्दिर है,
यहाँ पीड़ितों को,
न्याय मिलता है,
आज समझ रही हूँ,
अगर,
एक भी,
पीड़िता को,
न्याय मिला होता,
तो आज मैं,
पीड़िता ही नहीं होती,
अपराधियों को दण्ड मिला होता,
तो कोई बलात्कार करने की,
हिम्मत ही नहीं करता।
आज समझ पाई हूँ -
क्यों लड़कियाँ,
या तो खुद कुएँ में,
छलाँग लगा देती हैं,
या उस पापी को,
हँसिया से काट देती हैं,
इस कोर्ट - कचहरी में,
आकर,
और बेइज्जत होने के अलावा,
क्या मिलता है?
मुझे लगा था -
आत्महत्या करना,
गलत है,
कानून हाथ में लेकर,
उसका खून करना भी,
गलत है,
कोर्ट - कचहरी जाकर,
न्याय के लिए,
दरवाजा खटखटाना चाहिए,
मिल गया,
न्याय,
न्याय मिल गया -
हा हा हा हा….
जज तेरी बुद्धि को,
मैं कोसती हूँ,
सौ - सौ लाँछन देती  हूँ।
तेरे न्याय को मैं,
हरगिज़ नहीं मानती,
लेकिन मेरे न्याय से,
तुझे कौन बचाएगा?
आज से अपनी खैर मनाना,
शुरु कर दे।
अब इस न्याय के मन्दिर की,
असलियत जान गयी हूँ,
अब नहीं डरूँगी,
किसी से,
अरे,
खूनी, बलात्कारी और चोरों को,
तुम लोगों ने ही,
पनाह दी है,
ये ही तो हैं,
तुम्हारी तिजोरियाँ,
भरने वाले।
मैं तो नहीं भर पाऊँगी,
तुम्हारी तिजोरियाँ।
पकड़ लेना मुझे,
लटका देना फाँसी पर,
एक को मारकर भी फाँसी,
और सौ को मारकर भी,
उन सबका कत्ल करूंगी,
जो तेरी जैसी सोच वाले हैं।
हा हा हा हा…
जज साहब,
तूने तो रास्ता खोल दिया -
किसी छोरी से शादी करना चाहो,
वो राजी न हो,
तो उसका बलात्कार करो,
जज साहब आगे,
बात पक्की करा देंगे।
लोग कहने लगे -
सदमे से पागल हो गयी है,
पागलखाने ले चलो।
- अरे नालायकों,
पागल तो तुमलोग हो,
जो बलात्कारी और,
उसे पनाह देने वाले जज को,
जो इंसानियत का मतलब नहीं समझता,
कुछ नहीं कहते,
मुझे पागल कहते हो।
मैं उस जज के फैसले को,
नहीं मानती,
चाहे मुझे,
पागलखाने भेजो,
या जेलखाने।
तुम लोगों की नज़र में,
मैं पागल हूँ,
क्योंकि बलात्कार का शिकार होकर,
खुद को दोषी,
नहीं माना,
आत्महत्या नहीं की,
कानून हाथ में लेकर,
उसका खून नहीं किया,
समाज - बहिष्कृत होकर,
मेरे माँ - बाप ने,
खुद ज़हर खाकर,
मुझे भी ज़हर नहीं दिया।
मैं ही नहीं,
मेरा पूरा परिवार पागल है,
जिसने इस न्याय - व्यवस्था पर भरोसा किया,
न्याय के इंतजार में,
एक - एक पल,
मर - मर कर काटा,
और आज,
जज के फैसले पर,
ऐतराज़ किया।
ले चलो,
मुझे,
मेरे परिवार को,
जेलखाने,
पागलखाने,
जहाँ ले जाना है,
पर हम नहीं छोड़ेंगे,
उस कुत्ते को,
और,
उसकी वकालत करने वाले कमीने जज को।

Tuesday 26 April 2016

दिग्भ्रमित

स्मृति-पटल पर,
बार-बार किसी का आना,
अनायास,
न चाहते हुए भी,
स्वयं को रोकने पर भी,
तो क्या समझा जाये।
उसकी स्मृति में भी,
है तुम्हारी उपस्थिति?
ऐसा सोच लेना,
न्यायप्रद है क्या?
नहीं.....
नहीं.......
कोसों दूर रहकर भी,
अक्सर,
दिख जाता है कोई चेहरा,
हँसता - मुस्कुराता,
और कभी,
बहुत उदास,
तो क्या समझा जाये,
कि उस उदासी की वज़ह,
तुमसे दूर रहना है,
शायद!
हो सकता है,
पर.......
फिर भी,
मन कहता है,
नहीं.......
नहीं........
पता नहीं,
स्वीकार करने की,
शक्ति नहीं है,
इंकार का भय है,
या फिर कोई और कारण?
क्यों सारी अनुभूतियाँ,
भ्रम प्रतीत होती है,
आखिर क्यों है तेरी,
दिग्भ्रमित सी स्थिति ?

आशंका

मेरी उम्मीदें बढाकर,
बढ़ा लिया है,
तूने अपना दायित्व।
बहुत आसान लगता है,
यह सब,
शुरु - शुरु में ।
धीरे-धीरे,
बदलते हैं,
जब हालात ,
समीकरण भी बदलते हैं,
बढ़ी हुई उम्मीदें ही,
अक्सर,
दुःख उत्पन्न करती हैं।
एक निस्संग,शांत,मूक,
अलग-थलग,अपरिचित,
व्यक्ति को,
इतना अधिक अपनापन,
प्यार,
आसानी से,
ग्राह्य नहीं हो पाता।
इसलिए,
कहती हूँ,
मत छीनो एक साथ,
मेरा स्वाभिमान और,
आत्मविश्वास,
रहने दो मुझे,
आत्मनिर्भर।
उम्मीदें मधुर स्वप्न में,
ले जाती हैं,
स्वप्न कितना भी मधुर हो,
वह सच नहीं हो सकता।
सच कटु होकर भी,
सच है।
सामान्य रूप से बढ़ने दो,
अपनी मित्रता,
जहां न किसी का अहम,
पल्लवित हो सके,
न कोई अपने को एहसानों के,
बोझ तले,
दबा हुआ महसूस करे।
न किसी के मन में,
आशंका हो,
न ही किसी के मन में,
दूसरे के प्रति,
अविश्वास का भाव।

Sunday 24 April 2016

खोज

खोज है उस शक्ति की,
जिसके सहारे लड़ सकूँ,
मुश्किलों से,
कर सकूँ सामना,
मुसीबतों का।
जगाना है उस आत्मविश्वास को,
जिसके सहारे,
खड़ी कर सकूँ स्वयं को,
इस बड़ी दुनियाँ में।
कर सकूँ अन्त,
अनसुलझे सवालों का।
बहुत उम्मीदें तो नहीं थीं,
पर,
जितनी भी थीं,
उसे हासिल कर लेना,
इस दुनियाँ में,
अगर आसान होता,
तो फिर किसी के चेहरे पर,
मायूसी नहीं होती।
सामर्थ्य होते हुए भी,
प्रतियोगिता में जीत,
मिल ही जाये,
ये निश्चित तो नहीं,
फिर,
कैसे निश्चिंत करूँ मन को।
यहाँ तो,
अजीबोगरीब हालात हैं,
जिसमें एक के सर पर,
पैर रखकर खड़े होने में भी,
कोई ग्लानिभाव नहीं आता,
किसी के मन में।
कुछ हैं मुझसे,
लोग अभी भी शेष,
जिन्हें दुनियाँ,
मूर्ख कहती है,
क्या करें ऐसी समझदारी का,
जो हमारी इंसानियत ही,
छीन ले।
भरोसा स्वयं पर,
कायम है अभी तो,
अभी तो पहुंचना है,
उन सभी शेष,
गंतव्यों तक,
जिनके लिये,
यात्रा प्रारम्भ की थी।
श्रम से भागना कभी,
जाना ही नहीं।
क़दमों को कभी,
शिथिल होने ही नहीं दिया।
समय के साथ,
मेरे भीतर से ही,
आएगी वह शक्ति,
जिसके सहारे,
चल सकूँगी,
निर्भीक होकर,
खोल सकूँगी,
नई राहों के द्वार।

तुम और शब्द

वही चिर परिचित,
कई कई बार सुने,
पुराने और प्रचलित शब्द,
जो लगते हैं,
अत्यंत साधारण,
तुम्हारे लबों पर आते ही,
हो जाते क्यों खास?
होता उनसे एक नवीन परिचय,
ऐसा लगता है,
जैसे कि.....
आज ही समझ पाई हूँ,
उस शब्द का वास्तविक अर्थ।
जान पाती हूँ,
उसके असली मर्म को,
महसूस करती हूँ उसे,
अपने अंतर-अंतरतम,
हृदय - बिंदु तक,
अन्तस्तल की,
अनन्त गहराइयों तक।

दोराहे पर

रास्ते पर चलते-चलते,
अचानक,
आता है मोड़,
जहाँ से फूटते हैं,
दो रास्ते।
कभी कभी तीन या चार,
और,
कभी तो इनसे भी अधिक।
संशय की स्थिति,
किधर जाएँ?
समस्या यहीं समाप्त भी तो,
नहीं होती न।
सुगम रास्ता जो प्रतीत हो रहा,
उस पर चलने से,
स्वयं से हो जाये,
शायद विरक्ति,
क्योंकि तब,
जीवन भर की,
आत्मग्लानि की अनुभूति,
इन समस्त चक्रव्यूहों से,
कहीं अधिक,
कष्टप्रद होगी ।
आकांक्षा, लक्ष्य और मार्ग की,
जद्दोजहद में,
असफलता का भय,
बढ़ाता है मानसिक दबाब,
और मिटता जा रहा है,
अपना ही अस्तित्व,
स्वयं को सिद्ध करने के प्रयास में।

सपनों का अस्तित्व

सुबह की लंबी परछाई,
सिमट कर हो जाती,
कितनी छोटी,
जब सूर्य आ जाता,
ठीक सर के ऊपर,
और सूर्य ढलने की,
गति के साथ ही,
परछाई लेने लगती,
बड़ा आकार,
फिर,
शाम होते - होते,
हो जाती,
पुनः लंबी......
ठीक अपने सपनों की तरह।

कैद पंछी

मन!
है कितना नादान।
कल्पना के पंख लगाकर,
उड़ तो सकता है,
किन्तु मेरे क़दमों में,
वही गति तो क्या,
उसका शतांश लाने में भी,
है असमर्थ,
क्योंकि,
मन के पंछी को,
किसी ने,
कैद कर रखा है,
लोहे के पिंजड़े में।
पिंजड़े के आस पास खड़े लोग,
उसके पंख,चोंच आदि को देख,
अपना मन बहला रहे हैं,
फिर,
उसे कुछ बोलने को,
प्रेरित कर रहे हैं,
ताकि मनोरंजन,
सम्पूर्ण हो सके,
ठान लिया है,
मन के नन्हे पंछी ने,
नहीं दुहरायेगा,
वह कोई भी,
शब्द या वाक्य,
नहीं करेगा,
किसी की आज्ञा का पालन,
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा,
उसे या तो उड़ा दिया जायेगा,
या,
मार दिया जायेगा,
पहली में मिलेगी मुक्ति,
और दूसरी में मोक्ष।
ये दोनों ही स्थितियां,
लोहे के पिंजड़े की कैद से,
लाख गुणा अच्छी होंगी।
नहीं रह गया है,
अब मन,
इतना भी नादान।
अपनी ताकत से भले ही,
कोई कैद कर ले उसे,
उसकी इच्छाएँ,
नहीं छीन सकता,
उससे कोई भी।

Friday 22 April 2016

कैसी हैं आप

जब भी वह सामने आता-
मुस्कुराकर ,
'हेलो' कहता,
फिर और बड़ी मुस्कराहट के साथ पूछता-
"कैसी हैं आप"
चौंक उठती वह,
कोई इतने प्यार से,
उससे भी बात कर सकता है,
विश्वास नहीं होता,
अम्मा बाबा के बाद तो,
उपेक्षित सी रहने की आदत सी,
पड़ चुकी है।
मैं पूछ रहा हूँ,
कैसी हैं आप?
आर यू फ़ीलिंग बेटर?
कुछ प्रश्नों के उत्तर तो,
निर्धारित हैं,
इसलिए वह कह देती-
अच्छी हूँ।
पर आँखों और चेहरे के,
भावों से तो.....
तन-मन की पीड़ा,
बयां हो ही जाती है।
खासकर तब,
जब पूछनेवाला डॉक्टर हो,
और हाल बताने वाला रोगी।
और ऊपर से,
बीमारी भी ऐसी।
एक तो स्तन कैंसर,
कोढ़ में खाज कि,
वह भी आखिरी स्टेज में......
पल - पल छीज रही थी वह,
ज़िन्दगी को कहीं से,
बटोर लाना चाहती थी,
पर ज़िन्दगी थी कि,
मुट्ठी से रेत की तरह,
फिसलती जा रही थी।
सुन रखा था उसने-
अधिक उम्र तक,
अविवाहित रहने,
संतानोत्पत्ति न होने से,
होता है-
स्तन कैंसर का खतरा।
पर,
कहाँ जानती थी कि,
गाज गिरनी ही थी।
ध्यान तब गया था,
जब स्तनों से बहने लगा था मवाद,
लगा था कि दूध है,
पहले तो आश्चर्य चकित हुई थी,
फिर ख्याल आया था,
दिन-रात,
भतीजे - भतीजी को,
गोद में खिलाती है,
शायद ममता से दूध उतर आया है।
उसने कई औरतों के मुंह से,
ऐसी कहानियां सुनी थी,
जिनमें ममता के प्रभाव से,
दूध उतर आने का जिक्र था।
बड़ी भाभी को बताया तो,
अजीब नज़रों से देखने लगीं,
शायद उसे,
ननद के चरित्र पर शक हो गया था,
उसे लगा था कि,
गर्भ ठहर गया है,
और इसीलिए,
दूध उतर आया है।
उसने देवरानी को आवाज दी,
फिर,
दोनों आपस में खुसुर-फुसुर,
करने के बाद,
एक स्वर में बोलीं
-दिखा
सकुचा सी गयी वह.......
बड़ी भाभी ने उसकी,
एक न सुनी।
ब्लाउज के बटन,
खोलने लगी।
वह भागने को हुई तो,
छोटी भाभी ने कहा-
"उसके सामने नहीं आई थी शरम?"
वह हक्की-बक्की सी ठिठक गई....
पर यह क्या-
बड़ी भाभी के हाथ लगाकर दबाते ही,
खून बहने लगा था।
उस दिन के बाद से,
शुरू हुआ था,
जाँच और इलाज का,
लंबा सिलसिला।
पीड़ा से भर गया था,
तन-मन।
हाय री किस्मत......
नहीं खुल पाये थे,
जो स्तन,
प्रेमी,पति और शिशु के समक्ष,
वो खुले थे,
जाँच और ईलाज के लिए.......
ये प्रक्रियाएं भी कम कष्टप्रद नहीं थीं।
ओपीडी, वार्ड,डॉक्टर, नर्स.....
चेकप, मशीनें,एफ एन ए सी, मेमोग्राफी,
वगैरह वगैरह,
डॉक्टर नर्स अपनी भाषा में,
जाने क्या क्या बोलते,
पर्ची लिखकर फ़ाइल में डालते,
और फ़ाइल के साथ,
इस फ्लोर से उस फ्लोर,
कभी पैदल,कभी व्हीलचेयर पर,
कभी स्ट्रेचर पर वह,
जब जैसी हालत होती,
और सबसे बढ़कर कीमोथेरेपी,
जिसके लिए कहा जाता था,
जान बचाने के लिए है,
पर थी जानलेवा।
जब अच्छी-भली थी,
कोई हाल पूछने वाला नहीं मिला,
जब भाई-भाभी उससे सारा काम करवाते,
तब भी वह बुरा नहीं मानती,
थकती तो कभी थी ही नहीं।
उसे लगता कैसे किसी को जुकाम होता है?
वह तो रात में भी कपड़े धो लेती,
जाड़े में भी सर पर ठंडा पानी डालकर,
नहा लेती।
उसका स्वस्थ और मेहनती होना ही,
अभिशाप हो गया।
अपने मुँह से अपने विवाह की बात,
करती तो कैसे?
भाई भाभी कान में तेल डाले,
उसका विवाह टालते गए।
कई बार सोचा-
भाग जाये किसी छोरे के साथ,
पर,
किसी से मुलाकात तो तब होती,
जब घर से बाहर निकलने की,
कोई गुंजाईश होती,
घर में आनेे वालों से भी उसे दूर ही रखा जाता।
अब जब कोई भी साँस,
आखिरी हो सकती है,
किसी भी पल दम टूट सकता है,
इस डॉक्टर ने जीवन की,
कीमत का एहसास करा दिया है।
जब वो राउंड पर आता है,
बीमारी में भी वो जी उठती है,
इतनी ख़ुशी तो कभी स्वस्थ रहकर भी,
नहीं मिली थी।
याद आता -भाई के आने पर,
भाभी का खिल-खिल जाना।
सोचती ये डॉक्टर मेरा जन्मों का साथी है,
इंसानों ने नहीं मिलवाया,
तो भगवान ने उससे मिलवाने के लिए,
बीमारी दे दी।
और, नहीं तो क्या?
इतने बड़े अस्पताल में,
उसी डॉक्टर के पास,
उसे क्यों भेजा गया।
बचपन याद आता,
उसके लंबे घने बालों में,
तेल डालकर,
हल्के हाथों से थपकी देकर,
मालिश करती हुई,
माँ,
उसका विवाह राजकुमार से,
करने की बातें करती।
अचानक हाथ सर पर गया,
जहाँ अब एक भी बाल नहीं।
पहले दिन डॉक्टर उसके बालों और चेहरे को,
देखता रह गया था।
नर्स समझाती-
"हम देखता,
तुम डॉक्टर के प्यार में पड़ता,
ये उसका काम है,
उधर ज्यादा ध्यान नहीं देने का,
मरीज से प्यार से बोलना,
उसका ड्यूटी है।
वो इधर ज़िन्दगी देने आया है,
इसलिए अच्छे से,
प्यार से बोलता,
उसे हर पेशेंट का ज़िन्दगी,
बाल और स्किन से सिम्पैथी होता।
हम गॉड से प्रे करता-
तुम जब इधर से ठीक होकर जाइनगा,
तुझे डॉक्टर से भी अच्छा हस्बेंड मिले।
वो शादीशुदा है,
उसका मिसेस भी डॉक्टर है,
गेनीकोलॉजिस्ट।
जब तुम्हारा बेबी होइनगा,
तो उसी के अस्पताल में जाना,
मैडम भी बहुत अच्छा,
एकदम इसी का माफ़िक।"
यदि यह डॉक्टर की सहानुभूति है,
तो भी उसके लिए,
यह अनमोल है।
जाने क्या-क्या ख्याल आते रहते,
एक बार भी भाई-भाभी मिलने नहीं आये थे,
जबकि डॉक्टर बता चुके थे ,
कि बीमारी संक्रामक नहीं है।
बीमारी तो थी ही,
मन में उठने वाले सवाल भी,
जीने नहीं देते थे.....
अम्मा-बाबा को इतनी जल्दी क्योँ थी?
जाने की।
भाइयों को इतनी जल्दी क्यों थी,
अपनी शादियों की।
-एक बार भी सोचा होता उसकी शादी के बारे में-
काश!
तभी सामने आकर डॉक्टर ने,
फिर कहा था-
"हेलो"
कैसी हैं आप?"
- "डॉक्टर!
मुझसे शादी कर लो।
मुझे प्यार हो गया है,
तुमसे........
बीमारी से तो मुझे तुम,
बचा ही लोगे,
पर,
तुम्हारी मुस्कराहट,
मेरी जान ले चुकी है।"
-"सिस्टर प्लीज़ कम।
हरी अप।
ब्रिंग स्ट्रेचर।
क्विक।
इमरजेंसी है,
बेड नं 18 पेशेंट की हालत,
बहुत नाज़ुक है,
शी इज सिंकिंग.......
उस पल उसके मन में आया था,
वह डॉक्टर के गले लग जाये,
सीने से चिपट कर कहे,
वह पूरे होशो हवास में है,
उसे सचमुच उससे प्यार हो गया है।
पर यह क्या......
आँखों के आगे अँधेरा - अँधेरा,
कान में फिर डॉक्टर की,
मीठी आवाज़-
"ब्रेव गर्ल!
कम ऑन।
हमलोग दिख रहे हैं?"
_हाँ हाँ...
"यू केम बैक यू नो?"
चेहरे पर वही,
जानलेवा मुस्कान।
-लगता है सच्ची वह होश में नहीं थी,
वरना अब क्यों नहीं बोल पा रही,
वह सब।
मन में होने पर भी,
पहले भी कहाँ बोल पायी थी?
पल भर बाद ही,
वही सवाल,
वही प्यारी आवाज-
"कैसी हैं आप?"
इस बार उसने भी मुस्कुराकर उत्तर दिया-
-अच्छी हूँ डॉक्टर!
मैं जानती हूँ,
आप मुझे मरने नहीं देंगे।

Thursday 21 April 2016

प्रेम - प्रस्ताव

उसकी दीवानगी,
मेरी समझ से परे थी,
न जाने क्यों........
मरती थी वो मुझ पर।
क्या ?
आप नहीं मानते,
हाँ....
ऐसा उसने तब तक मुझसे,
कहा तो नहीं था,
पर उसकी आँखें.......
आँखों की भाषा,
किसी ज़ुबां की मोहताज होती है भला?
हाँ मुझे भली-भांति एहसास था कि,
मुझसे कहीं बेहतर कई लड़के थे,
जो उसकी एक झलक पाने को,
गली के मोड़, नुक्कड़,
या उसके कॉलेज के रास्ते में,
यहाँ-वहाँ,
घंटों उसकी प्रतीक्षा में खड़े रहते थे।
पर वो दीवानी लड़की,
उसकी आँखों पर तो जैसे पट्टी बंधी थी,
सिवा मेरे,
वो कहाँ ध्यान देती थी,
किसी की तरफ़,
ढूंढ ही निकालती थी,
वो मुझे,
चाहे जिस किसी भी,
कोने में चला जाऊँ,
एक दिन मेरे सबसे खास दोस्त ने,
जो मेरा रूम मेट भी था,
समझाते हुए कहने लगा.....
"तू भाव बढ़ाए बैठा रह,
वो किसी के साथ निकल लेगी।
यार,
तेरी जगह मैं होता तो..."
तो क्या?
बता न चुप क्यों हो गया?
-"यार , नैतिकता आड़े आ रही है,
दोस्त की गर्लफ्रेंड...
भाभी समान,
और भाभी माँ समान..."
साले का भाषण सुन,
मैं ठठा कर हँसा,
और उसकी पीठ पर,
धौल जमाकर कहा-
तू भी न.....
मुझसे मार खायेगा,
इतनी दूर पहुँच गया..
मैं उससे दूर-दूर
भागता हूँ....
तुझे पता है न।
अच्छा ही होगा,
अगर मेरी जगह वो,
तुझे पसंद करे,
वैसे भी मेरे पास,
गरीबी के सिवा कुछ नहीं,
नोकरी न जाने मिलेगी भी या नहीं,
और मिलेगी भी तो,
पता नहीं कब तक?
तभी अचानक,
मेरे सामने आ गयी थी वह,
शायद पीछे ही खड़ी थी,
पता नहीं कब,
मुझे ढूंढती हुई आ गयी थी,
और संभवतः,
हमारी बातें भी सुन चुकी थी।
मेरी आँखों में आँखें डाल कर बोली-
"अगर मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती,
तो मैं अपने दिल को,
समझा लुंगी,
अगर और किसी भी कारण से,
इन्कार किया,
तो उस कारण को मैं दूर करुँगी।
फिर,
मेरा हाथ पकड़ कर बोली-
"आई लव यू"
मैं शरमा गया,
नज़रें ज़मीन में गड़ गईं,
तिरछी नज़रों से दोस्त की तरफ देखा,
वो मुस्कुरा रहा था।
दुबारा बोली-
"आई लव यू"
पता नहीं क्यों और कैसे-
मेरे मुँह से अचानक निकल गया था-
"आई लव यू टू"

अफ़सोस

उफ़…
खूबसूरत चेहरे की तलाश में,
भटके हुए थे तुम।
भला कैसे दिख सकता था,
तुम्हें वह खूबसूरत,
दर्पण सा स्वच्छ,
सोने जैसा चमकीला,
हीरे सा बेशकीमती,
वह विशाल हृदय,
जो था तुम्हारे बेहद करीब,
पर,
क्यों कसूरवार मानें तुम्हें,
देखने की भी तो हर व्यक्ति की,
अपनी सीमाएँ हैं न।
बड़े से बड़े नेत्र रोग विशषज्ञों ने,
ईज़ाद की हैं,
एक से बढ़कर एक नायाब,
दृष्टि प्रदायी यंत्र,
पर,
अफ़सोस कि,
इन तमाम यंत्रों से परे है,
वह अंतर्दृष्टि,
जो देख पाती है,
किसी व्यक्ति के हृ्दय को।
अधिकतर मामलों में,
देर-सबेर ही सही,
हो ही जाता है नज़र का इलाज़,
पर नजरिया ?
नज़र से कहीं,
बहुत ऊपर का मामला है यह,
वरना,
दिख ही जाना था,
तुम्हें अपने बेहद करीब,
वह विशाल, खूबसूरत,
पारदर्शी हृदय।