Wednesday 28 September 2016

दस्तख़त

हाँ.......
ले लो मेरे हस्ताक्षर,
और ऊपर....
विस्तार से,
लिख लो,
पूरा ब्यौरा।
पूर्णतः स्पष्ट रहें,
नियम व् शर्तें भी।
कर लो अपनी,
पूरी तस्सल्ली।
ताकि,
मैं मुकर न जाऊँ,
कल को।
कितनी बुद्धू हूँ,
मैं भी,
सोचती थी .......
विश्वास से बड़ा,
कोई मसौदा नहीं,
दोस्ती से बड़ा,
कोई करारनामा नहीं।
हा हा,
कितनी पागल हूँ,
मैं भी,
ऊल - जुलूल बातों को,
भरे बैठी हूँ,
दिलो - दिमाग,
और आदतों में।
अच्छा ही किया,
तुमने........
जो सिखा दिया मुझे,
कि,
कभी न करना,
किसी पर भरोसा,
चाहे उसने,
तुम्हारा साथ,
अब तक निभाया हो,
न सुन पाया हो,
तुम्हारे विरुद्ध,
एक शब्द भी,
तब भी,
हाँ तब भी।
पर एक बात,
जान लो,
तुम भी,
आज मुझसे,
कि जहाँ,
दस्तख़त आ जाता है,
वहाँ से,
दोस्ती खिसक लेती है।

Tuesday 13 September 2016

जान - बूझकर

जानबूझकर,
कर ली हो,
जिन्होंने,
अंधेरों से दोस्ती,
उन्हें कोई,
दर्पण कैसे,
दिखलाए।
आँखों को,
बन्द कर,
अंधेरों में घिरकर,
आख़िरकार,
रास्ते बन्द ही तो,
होते हैं।
जो डर गए,
राह बनाने के,
श्रम से,
उन्हें कोई,
राह कैसे,
दिखलाए।
अपने ही,
भीतर का अँधेरा,
फैल जाता है,
बाहर भी।
धीरे - धीरे बढ़ते,
भीतरी अंधकार का प्रभाव,
बढ़ जाता है,
कुछ इस कदर,
कि प्रकाश से,
स्वयं ही,
बढ़ने लगती है ,
दूरी।
इस तरह,
पुतलियों को भी,
आदत हो जाती है,
अंधकार की।
सभी इन्द्रियाँ,
हो जाती हैं,
अंधकार के अधीन।
प्रकाश का जिक्र भी,
होने लगता है,
असह्य।
बन जाए,
कोई,
स्वेच्छा से,
अंधेरों का गुलाम,
तो उसे,
नन्हें से,
दीप के साहस,
और,
अथाह रश्मि के स्रोत -
सूरज,
की गाथा,
कोई कैसे सुनाए।

परिचय के पश्चात

परिचय से पूर्व,
देखा था,
बस तुम्हारा चेहरा।
उस समय,
तुम्हारा चेहरा ही था,
तुम्हारा सम्पूर्ण वजूद,
मेरे लिए।
उसकी कोमलता,
रुक्षता,
बनाती थी,
उसे
भावपूर्ण या भावहीन।
वार्तालाप आरम्भ होने पर,
तुम्हारी आदतें,
विचार,
कौतूहल,
व्यवहार,
हँसी,
मुस्कान,
निश्छलता,
आदि भी,
बयाँ करने लगी तुम्हें।
इस बयाँ होने के क्रम में,
परिचय घनिष्ठ,
होता गया,
और चेहरा,
तुम्हारे असली वजूद के सामने,
पीछे छूटता गया।
अब तुम्हारा अर्थ,
था -
तुम्हारा चेहरा नहीं,
बल्कि,
तुम स्वयं।
परिचय परिवर्तित हो गयी थी,
प्रगाढ़ता में,
जब मुझे चोट लगने पर,
तुम्हारे मुँह से,
निकली थी,
कराह।
उस दिन हो गयी थी,
मित्रता की पुष्टि,
जब मैं रो रही थी,
और तुम्हारी आँखें भी,
छलछला उठी थीं।
अब तुम्हारा चेहरा,
मेरे लिए,
बन चुका है,
खुली किताब,
जिसे पढ़ती हूँ,
हर पल।
यहाँ तक कि,
तुम्हारी अनुपस्थिति में भी।
कोई अंतर नहीं पड़ता,
अब कुछ भी,
तुम्हारे,
कहने या न कहने से,
क्योंकि,
पढ़ती ही रहती हूँ,
हर पल,
तुम्हारे चेहरे और,
आँखों की भाषा।

Sunday 11 September 2016

मासूम आँखें

तपती हुई गर्मी से,
जलती धरती,
मौसम की पहली बारिश की बूंदों से,
महक उठी है।
झमाझम की ध्वनि,
मधुर संगीतमय - वातावरण,
निर्मित कर रही है।
नेत्रों को भी मिल गयी है,
शीतलता।
फाइलों में उलझी आँखें,
खिड़की से बाहर,
देखने लगी हैं।
मन मयूर भी,
नाच उठा है,
बगीचे में,
नाच रहे मोर के साथ।
रास्ते पर चल रहे हैं,
इक्के - दुक्के लोग,
कुछ छाता लेकर,
कुछ यूँ ही भींगते।
बीस साल पहले,
ऐसी ही बारिश थी,
उस दिन भी जब,
पहली बार,
जाना हुआ था,
उसके घर।
संयोगवश
पहन रखी थी,
उस दिन,
उसी के द्वारा,
प्रथम उपहारस्वरूप,
दी गयी -
प्योर सिल्क की,
हल्की गुलाबी साड़ी।
झमाझम बारिश,
ऊपर से,
प्रियतम का साथ,
मन बल्लियों उछल रहा था,
साड़ी खराब होने की चिंता भी,
मन के किसी कोने में,
सिर उठाने से,
बाज नहीं आ रही थी।
उसके घर पहुंचते ही,
बोल पड़ी थी -
मुझे कोई भी कपडा दे दो,
जल्दी से,
इस साड़ी को सुखा दूँ,
कल ड्रॉय क्लीनिंग के लिए,
दे दूंगी।
जबाब मिला था -
तुम्हें साड़ी की पड़ी है,
मुझे चिंता है,
तुम्हें जुकाम न हो।
झट अलमारी से,
कुर्ता - पाजामा निकाल,
उसे पकड़ाया,
और चाय बनाने,
किचेन में चला गया था ।
मन की बात दुआ बनकर,
जुबान पर आ गयी थी
  - काश!
ऐसा ही रहे ये हमेशा।
मीठी यादों में खोई,
कुर्सी से उठी,
बाहर निकली।
पैदल ही चल पड़ी,
उसके दफ्तर की ओर।
दो किलोमीटर की दूरी,
मुस्कुराती,
भींगती हुई,
पानी में पाँव,
छपाछप करती,
मिनटों में,
तय कर ली उसने।
उसके दफ्तर की बिल्डिंग,
सामने देख,
बांछें खिल उठी,
तेज कदमों से,
लगभग दौड़ती,
पहुँच गयी थी सीधा,
उसके केबिन में।
रोकने की बहुत कोशिश की थी,
चपरासी ने,
पर अपनी धुन में मगन,
कहाँ सुन पाई थी,
वह कुछ भी।
फ़ाइल से नज़रें हटाते ही,
उसे सामने देख,
वह हक्का - बक्का,
रह गया था।
बदन से टपकती,
पानी की बूंदों,
और,
पैरों के कीचड़ से,
कालीन ख़राब हो रही थी।
उसने गुस्से से,
घूरकर देखा,
बदले में,
बड़ी अदा से,
मुस्कुराई थी,
इतरा कर बोली थी,
कुछ याद आया।
दाँत पीसते हुए,
कहने लगा -
ये क्या पागलपन है,
क्यों मेरी प्रतिष्ठा,
को मिट्टी में,
मिलाने चली हो?
दुगने नखरे से,
कह बैठी-
ये सब पहली बार तो,
नहीं कर रही मैं,
पहले तो,
कभी बुरा नहीं माना तुमने।
कम से कम,
अपनी बेशकीमती साड़ी,
का ही सोच लेती।
अपमान बोध से,
भरे मन से,
जुबां पर आ गया था -
काश !
दुआ कुबूल हुई होती।
सहमी सी,
बुझे मन से,
बाहर आ गयी थी।
उसी रास्ते,
लौट रही है।
थम गई है,
अब बारिश।
धीरे - धीरे,
बरसने लगी हैं आँखें।
हाँ!
वही आँखें,
जिनमें कभी,
आंसू न आने देने की कसमें,
खाई है,
उसी ने,
कई - कई बार,
जो आज स्वयं ज़िम्मेदार है,
इन आंसुओं के लिए।
पहुँच गई है
वापस अपने,
वर्किंग डेस्क पर,
उलझ गयी है,
फिर से फाइलों में,
आंसुओं से भरी,
धुंधली पड़ रही,
नज़र ।
अपनी भावनाएँ,
छुपा लेने,
अंग -प्रत्यंग पर,
सम्पूर्ण,
नियंत्रण की कोशिश में,
लगातार जूझ रही हैं मासूम आँखें।

Wednesday 7 September 2016

मित्र या शत्रु

नाराज़गी का खामियाज़ा,
भुगतते हैं,
दोनों ही।
अकेलापन भी,
सालता है,
दोनों ही को।
आज भी,
मेरी नाराज़गी,
कम तो नहीं हुई है।
बात बस इतनी सी है,
अकेलापन अब और,
सहा नहीं जाता,
न ही सही जाती,
जगहँसाई।
वैसे भी समझदारी,
अलगाव में नहीं,
अपितु,
मिलाप में है।
बहुत बार आया ख्याल,
गले लगकर,
रो लें दोनों जी भरकर।
मिटा लें,
सारे गिले - शिकवे।
मिट जाने दें अहम् को,
बह जाने दें,
आंसुओं के साथ वैर - भाव  को भी।
इन सबके लिए भी तो,
मुझे चाहिए होगा,
तुम्हारा सहयोग।
तुम्हारा साथ,
अहम् के साथ से,
बेहतर अवश्य है,
क्योंकि तुम्हारे साथ,
हंसने - मुस्कुराने के भी,
होते हैं अवसर।
सचमुच बहुत बार चाहा,
बतला दूँ,
मन का हाल।
खोल कर रख दूँ,
हृदय।
क्यों न कदम बढ़ाकर,
करूँ तुम्हारा,
पुनः स्वागत,
तुम्हारी उपेक्षा भाव,
की परवाह किये बिना।
आखिर किसी एक को तो,
करनी ही पड़ती है,
पहल।
दोनों जब लगा लें,
होठों पर ताले,
तो धीरे - धीरे,
संवादहीनता बना लेती है,
वर्चस्व,
जिसके नीचे दब जाता है,
अपनत्व।
खो जाता है,
अधिकार भाव,
कुन्द होने लगते हैं......
मन और मस्तिष्क भी।
सद्भाव का स्थान ले लेती है,
घृणा, द्वेष, वैर।
मन में भी,
लग जाते हैं जाले,
भर जाती है धूल भी,
बन्द घर के समान ही।
गलती का फैसला हो कैसे,
जब दोनों ही,
दब गए हों,
अहम् के बोझ से,
फैसले वैसे,
कभी नहीं होते,
आखिरी।
ये तो चलता रहता है,
हिसाब इस लोक से,
उस लोक तक,
अंतर बस इस बात से,
पड़ जाता है,
कि मामला मित्रता का था,
या शत्रुता का।

शिकायती नजरिया

ज़िन्दगी गुज़र जाती है जिनकी,
दूसरों की कमियाँ देखते,
अपनी कमियों की तरफ़,
तो आँखें बन्द ही,
रह जाती हैं,
आँखें बन्द होने तक।
उनके जुमलों की बानगी,
होती है,
कुछ यूँ-
वक्त ने कभी,
ठहरने का,
नाम तक नहीं लिया।
ये वक्त भी न,
पूछो मत इसकी तो.........
इतना दुष्ट है,
कि कभी मुझे,
जी भर,
साँस लेने का,
अवसर ही नहीं दिया इसने।
और ये मुई ज़िन्दगी,
इतनी छोटी सी है,
अपना बचपन,
ठीक से,
जिया भी नहीं था,
कि कन्धों पर ज़िम्मेदारियाँ,
आने लगीं।
अब और किसी ने तो,
कुछ करना ही नहीं था,
सारा भार मेरे ऊपर।
कंधे झुक गए,
बाल होने लगे सफेद,
आँखों पर लग गया,
मोटे फ्रेम का चश्मा,
एक - एक कर,
टूटने लगे दाँत,
आ पहुंचा,
सीधे बुढ़ापा।
साली जवानी ने तो,
दस्तक ही,
नहीं दी।
देती भी कैसे?
इसे तो जाना था,
उन लोगों के पास,
जो मेरी ही कमाई पर,
तर माल उड़ा रहे थे।
आराम कब किया मैंने,
खटते - खटते,
ज़िन्दगी तबाह हो गयी,
मज़ाल है,
जो कभी,
किसी ने,
मुझे पकड़ाया हो,
पानी से भरा गिलास?
यकीन नहीं आपको मेरी बातों का?
आपके मानने,
न मानने से,
क्या होता है?
बहुत देख रखे हैं,
आप जैसे।
दूसरे के फटे में,
हाथ डालकर हँसनेवाले।
अब जाइये,
यहाँ से,
मेरे पास इतना वक्त नहीं,
कि आपका भाषण सुनूँ।
चले आते हैं,
कहाँ - कहाँ से मुँह उठाये।
इन दुनियावालों का तो,
सत्यानाश हो,
दोगली है ये दुनियाँ,
और,
दोमुँहा साँप हैं,
दुनियाँ वाले।

Friday 2 September 2016

चीज़ नहीं है वह

आंसू बहना चाह रहे थे,
पर,
गले में ही कहीं,
फँस चुके थे।
हाँ!
तभी तो,
आवाज़ भी बंध सी गयी थी।
चीखना चाह रही थी,
करे क्या?
आवाज़ तो,
उन्ही आंसुओं के,
वाष्पकणों के बीच,
कहीं उलझ कर रह गयी थी।
हाँ!
उसने भी सुन लिया था,
अभी - अभी,
बस थोड़ी देर पहले,
सुनाया गया फैसला।
हाँ वही,
जिसे न्याय कहते हैं।
इन तथाकथित,
न्याय के रक्षकों ने,
न्याय का बीड़ा तो उठाया,
पर.........
बीड़ा उठाने और,
निभा पाने में,
बड़ा अंतर होता है।
निभाने हेतु ,
संवेदना,
बहुत - बहुत,
जरूरी है।
प्रकृति संवेदना देकर,
भेजती अवश्य है,
हर किसी को,
जिसकी आवश्यकता,
संभ्रांत बनने की,
दुरूह प्रक्रिया में,
घटती जाती है।
कोई क्या - क्या संभाले आखिर?
घर और दफ़्तर को सजाने के क्रम में,
अनावश्यक वस्तुएँ,
तो हटानी ही पड़ती हैं।
संवेदना, भावना, विचार,
इंसानियत, नैतिक मूल्य,
न जाने क्या - क्या ?
यहाँ तक कि,
वह जो ज़मीर नाम का,
एक फालतू सा शब्द है,
जिसका निर्माण,
न जाने किस सिरफिरे ने किया था,
वह शब्द भी।
आवश्यक और अनावश्यक में,
श्रेणीबद्ध होकर ही,
रह जाती हैं,
सारी चीज़ें।
चीज़..........
चीज़,
हाँ
चीज़ ही तो।
अंततः
चीज़ और मूल्य,
के बीच ही तो,
सदा चलता है,
सारा व्यापार।
और औरत,
उसकी तो नियति ही,
यही बनाकर रख दी गयी।
उसकी इच्छा - अनिच्छा का,
प्रश्न ही कहाँ था?
चीज़ों की भी,
कभी कोई इच्छा होती है?
ऊपर से चीज़ यदि,
उपभोग की हो तो,
उफ्फ्फ.......
कितनी बार भूल जाना चाहा था,
उस समूची पीड़ा को,
जिसने उसके तन - मन,
और आत्मा के,
इतने टुकड़े कर दिये थे कि,
प्रतिदिन जोड़ने का प्रयास भी,
विफल ही रहा है।
आज भी इन टुकड़ों को,
समेटती हुई,
सोच रही है.....
इस निर्णय ने,
ओखली में डाल,
कूट दिया है,
उन टुकड़ों को।
और कितनी बार,
बतलायेंगे,
जतलायेंगे ये,
सब के सब,
औरत की,
वही एकमात्र नियति,
जिसका समर्थन,
कितनी - कितनी बार,
कभी घुमाकर,
तो कभी,
सीधे,
तर्कों - कुतर्कों,
यहाँ तक कि,
क़ानूनी पोथियों में भी,
किया गया है।
चीज़ पर जिसने कब्ज़ा किया,
चीज़ उसकी।
चीज़ की,
पसन्द - नापसंद,
प्रेम - घृणा,
ख़ुशी - उदासी,
कहाँ आड़े आती है?
पौराणिक कथाएँ भी तो,
ऐसे ही प्रसंगों से अटी पड़ी हैं,
देवयानी के,
ऋषि पिता ने,
ययाति से उसके विवाह का निर्णय,
सिर्फ इसलिये किया था,
कि ययाति ने उसका,
स्पर्श किया था।
जुटातें रहें ये प्रमाण,
देते रहें कुतर्क,
वह ऐसे निर्णय को,
शिरोधार्य नहीं करेगी।
चुनोती देती है आज,
ज्ञानियों, न्यायविदों और,
शास्त्रज्ञों को,
क्योंकि,
स्वयं भलीभाँति,
अवगत है,
कि चीज़ नहीं है वह।