Wednesday 9 November 2016

वक्त का सफ़र

गुज़र जाता है,
वक्त का,
लम्बा फासला,
देखते ही देखते,
बस पलक झपकते ही।
पीछे मुड़कर,
देखने पर,
दीखते हैं,
कुछ दृश्य,
श्वेत - श्याम,
सिनेमा के दृश्यों की तरह।
आँखें बंद कर,
ध्यान लगाने पर,
सुनाई देती हैं,
कुछ आवाज़ें,
जो किसी पौराणिक कथा के,
आख्यान सी,
लगती हैं।
वक्त गुजर जाता है,
बहुत तेजी से।
लोग,
इसके साथ चलने की कोशिशों में,
तेज चलकर,
या,
दौड़कर भी,
छूट जाते हैं,
वहीं कहीं,
जहाँ उन्होने,
पूरे किये थे,
चौदह - पन्द्रह बरस से लेकर,
चौबीस - पच्चीस बरस।
कुछ विशेष चैतन्य लोग,
खींच ले जाते हैं,
इस सफ़र को,
बेशक,
वहाँ तक,
जहाँ उनहोंने,
पूरे किए थे,
चौन्तीस - पैंतीस बरस।
नहीं - नहीं,
एकदम से,
समाप्त नहीं हो जाता है सब कुछ,
बड़ी चुप्पी,
चतुराई और धीमी गति से,
वक्त निकल जाता है,
कहीं आगे।
लोग उसके साथ चलने की कोशिश में,
अक्सर,
घिसटने लगते हैं।
कभी कभी,
कुछ लोग यूँ ही,
घिसटते चले जाते हैं,
सौ या उससे भी अधिक वर्षों तक।
पीछे मुड़कर,
स्वयं को देखते,
मुग्ध होते,
पन्द्रह से पच्चीस की,
उम्र  के बीच कहीं,
जब अनगिनत,
उम्मीदें,
आशाएं,
आकांक्षाएं,
बाँहें पसारकर,
करती थीं,
स्वागत।

समुचित उत्तर

कभी - कभी,
बिल्ली के भाग्य से,
सींका टूट जाता है,
और बिल्ली उसे,
अपनी योग्यता,
प्रतिभा और,
विद्वता का,
कमाल बताती है।
क्या कहा जाये,
ऐसे में?
बिल्ली के,
वक्तव्यों की,
प्रतिक्रियास्वरूप,
कुछ मुस्कुराकर रह जाते हैं,
कुछ क्रोधित होते हैं,
तो कुछ प्रतीक्षा करते हैं,
सही वक्त और परिस्थिति का,
जब दे पाएँगे,
वो भी समुचित उत्तर।