Monday 18 September 2017

बड़े हैं तो बच्चे हैं

बड़े हैं तो,
बच्चे हैं,
बड़ों का होना,
मतलब,
सर पर छत,
पैरों के नीचे ज़मीन,
का होना।
इंसान के जन्म से लेकर,
अपने पैरों पर,
खड़े होने तक के सफ़र का,
तय होना।
नवजात शिशु,
को जब मिलता है,
अपने बड़ों का सहारा,
लाड़-प्यार,
दुलार,
संभाला जाता है,
उसे पल-पल,
अनमोल मोती सा,
पाला जाता है,
नाज़ों से,
पिलाया जाता है,
अमृत तुल्य,
माँ का दूध,
सुलाया जाता है,
अपने बड़ों की,
बाहों के झूलों में,
घुमाया जाता है,
कंधों के सिंहासन पर,
रखा जाता है,
सात किवाड़ों की सुरक्षा में,
कितना भी कुछ हासिल कर ले कोई,
नहीं खरीद सकता,
यह अनमोल सुविधाएं,
दुबारा..........
उनके जाने के बाद।
बच्चे कितने भी बड़े हो जाएं,
छोटे रहेंगे वे बड़ों से,
उनका होना,
मतलब,
अंग पर वस्त्र होना,
खेलने को खिलौना,
पढ़ने को किताब,
सुख-सुविधाएं,
आराम,
नखरे-मनुहार,
खुशामद,
माफ़ी
सब कुछ मिलना।
बड़े हैं तो,
बच्चे हैं,
बच्चों की किस्मत से,
जीते हैं,
बड़े।
ईश्वर करे बच्चों की किस्मत,
चमकती रहे,
बड़ों के रूप में,
उनके सर पर छत,
और पैरों के नीचे ज़मीन बनी रहे,
सचमुच…....
बड़े हैं,
तो बच्चे हैं।

Monday 3 April 2017

कोमलांगी

अपने कोमल हाथों से,
कितने काम...
निबटाती हो तुम!
आश्चर्य होता है मुझे,
कहाँ छुपा रखी है इतनी ऊर्जा?
घंटों जूझा था..
जिस पहेली से मैं,
तुमने एक पल में सुलझा दिया।
गणित का वह कठिन सवाल,
तुमने हँसते - हँसते,
हल कर दिया।
उस दिन.....
गोद में बच्चा लिए जब,
बस में चढ़ रही थी तुम,
मैं डर रहा था,
कि कहीं तुम,
गिर न जाओ।
वो तो बाद में,
मेरी नज़र पड़ी....
तुम्हारी पीठ पर,
एक भारी बैग भी टंगा था।
सच्ची....
जिन लोगों ने कहा था,
स्त्री अबला है,
ऐसा नहीं है,
उन्होंने नहीं देखा था तुम्हें,
बल्कि देख कर अनदेखा किया था।

Thursday 30 March 2017

नाजुक - सी

बड़े - बड़े दावे,
खोखले सावित हुए,
दिल से किये वादे,
झूठे सावित हुए,
गम्भीर आश्वासन,
समय के साथ,
गर्द की परतों में,
छुप गया।
सुनहरी आशाएँ,
धुंधली होती चली गईं।
कसम से,
सच्ची कसम टूट गयी,
प्रतिज्ञा भंग हुईं,
शपथ बिसरा दिया गया,
वचन भुला दिया गया,
वो तो बस,
थोड़ी नाजुक सी ही सही,
पर,
ईमानदार कोशिश ही थी,
जो धीमी गति से,
पहुँच सकी थी,
अपने लक्ष्य तक।

बात की यात्रा

बात घूम - फिरकर,
पहुँच ही गयी थी,
उस तक,
जिसके पीछे शुरु हुई थी।
सुनते ही उसे,
झटका - सा लगा था,
हाव - भाव भी,
बदल ही गए थे।
अपमान का बोध,
गहराने लगा था,
आंसू छलछला आये थे।
कंठ में अवरोध सा,
अनुभव हुआ था।
शरीर का संतुलन,
बिगड़ने लगा था।
खुद को सँभालने का प्रयत्न,
असफल सिद्ध हुआ था।
ज़बरदस्ती मुस्कुराने की,
कोशिश में,
हिचकी बँध गयी थी।
मूसलाधार बारिश की तरह,
बहने लगे थे आँसू।
याद आने लगी थीं,
एक - एक कर,
वो मीठी - प्यारी बातें,
जो अक्सर,
उसके सामने हुआ करती थीं।
सामने और पीछे के,
भेद की परत को,
पहचान न पाने का दुःख,
साल रहा था,
वरना बातें तो,
बातें ही थीं,
चाहे मीठी रही हों,
या कड़वी।

ज़िस्म और जान

माँ,
समझने लगी हूँ,
क्यों कहती हो
कि मैं तुम्हारी जान हूँ,
लगता है,
तुम्हारे मन के भीतर,
गहरी बहुत गहरी,
असुरक्षा भाव है,
मुझे लेकर।
शाम में
मेरे लौटने पर,
कितना गौर से,
देखती हो मुझे,
कपड़ों की,
एक - एक सिलवट,
लट की,
प्रत्येक उलझन,
गालों की रंगत.....
सिर्फ देखती ही नहीं,
सूंघती भी हो मुझे,
कि मेरे ज़िस्म से,
ठीक वैसी ही,
गंध आ रही है न,
जैसी सुबह,
घर से निकलते वक्त थी,
छू -छू कर तसल्ली करती हो,
कि सब ठीक है न,
तुम्हारे चेहरे के भाव,
शब्दों के,
मोहताज नहीं,
संभल - संभल कर,
बोलती हो।
मेरे और,
दुनिया के बीच की पाट में,
पिसती हो।
क्या मैं जानती नहीं,
तुम्हारा द्वंद्व।
सचमुच....
चाहती  तो हो,
मुझे आगे जाने देना,
तो सुनती क्यों हो,
इसकी - उसकी।
डरती क्यों हो?
इससे - उससे।
याद है,
कितनी बार,
दुहराती हो -
तेरी खुशी के लिए,
कुछ भी करूंगी।
फिर!
ये क्यों नहीं करती,
कि
डर और संदेह के,
अंधेरों से,
बाहर निकल आओ।

Wednesday 15 March 2017

हास्य घटता जा रहा


बढ रहा है क्रंदन,
हास्य घटता जा रहा।
प्रेम-भाव दूर गए,
उपहास बढ़ता जा रहा।
सरल हो गए,
आधुनिक उपकरणों से काम,
घर-बाहर के तमाम,
फिर भी मिलता क्यूँ नहीं,
लोगों को आराम।
सुबह जहाँ से चलते हैं,
वहीं पे होती शाम।
इलाज़ तरह – तरह के आए,
स्वास्थ्य घटता जा रहा।
घर रह गया है,
सिर्फ मकान,
लोगों से भरा हुआ गोदाम।
अर्जन कर जितना भी लाता,
ऊँट के मुँह-जीरा,
हो जाता।
आबादी निरंतर बढ़ रही,
और साथ घटता जा रहा।
जहाँ थे पहले खेत-खलिहान,
आज हैं,
सड़क,
बाज़ार,
दूकान।
बाग-बगीचे,
सिमट कर गमले में आ गए,
फूल को तो,
भूल चुके,
कैक्टस हैं छा गए,
रास्तों का जाल बिछ गया,

एहसास घटता जा रहा।   

सच्चे योद्धा की भाँति



समय देती है,
हर प्रश्न का उत्तर,
किन्तु धैर्य !
इसकी भी तो,
एक सीमा है.......
अपनी प्रत्यास्थता के आखिरी बिन्दु पर,
पहुँचकर,
खंडित सा होने लगता है धैर्य,
अभीष्ट समय की,
प्रतीक्षा में,
यह घड़ी,
जो वस्तुतः है,
प्रतीक्षा की घड़ी,
बन जाती है,
परीक्षा की घड़ी।
अपने अस्तित्व-रक्षार्थ,
कर्मभूमि में,
डटे रहना पड़ता है,
निरंतर उसी प्रकार,
जिस प्रकार,
एक सच्चे योद्धा को,
युद्धभूमि में।  


बीते पल की याद



ये पल,
ये क्षण,
आते हैं,
जाते हैं,
दूर.........
बहुत दूर कहीं,
चले  जाते हैं।
दे जाते हैं,
कुछ यादें,
अच्छी .....
तो कभी,
बुरी भी,
चलता जाता है क्रम,
भरता जाता है,
यादों का सन्दूक।
जीवन भर,
चलता जाता,
यादों के संग्रह का,
क्रम।
यह नहीं संभव,
कि हर पल की यादें,
अमिट हों,
कुछ पल तो,
खो जाते हैं,
समेटेते हुए भी,
कुछ पीछे छूट जाते हैं,
जीवन की दौड़ में।
कुछ बिखर जाते,
कुछ टूट जाते हैं,
संभालते-संभालते।
कुछ जिद्दी पल की यादें ,

दे जातीं ,
ऐसा स्थायी असर,
कि बन जाती-
तन, मन, जीवन का,
अभिन्न अंग।


नतमस्तक



मन का कोई छोर,
पहुँच चुका है शायद,
तुम्हारे हाथों तक.......
कभी-कभी,
जिसे पकड़,
खींचते हो मुझे अपनी तरफ,
और,
कर देते हो,
मेरे मन को अशांत !

तुम भी नहीं अनभिज्ञ इन सब से,
तुम्हारी बोलती आँखें,
खोल देती हैं वो गहरे राज भी,
जिसे सुनने को,
तरसते हैं मेरे कान।

पूर्ण आश्वस्त हो तुम,
यह मान,
कि समझ लेती हूँ मैं,
तुम्हारी हर  बात,
तुम से भी पहले।

भर देना चाहती हूँ,
तुम्हारे जीवन का,
हर पल खुशियों से।

हँसी आती है,
आता है गुस्सा भी,
साथ ही आशंका...

हो न जाएँ कहीं,
भावनाएँ इतनी सक्षम,
कि कर दे हमें,
नतमस्तक,

एक-दूसरे के समक्ष।  

तुम्हारे बाद


तुम्हारी कमी का एहसास,
किस कदर है,
कहना है मुश्किल!
पर,
तुम्हारी उपस्थिति का आभास,
होता है हर पल।
तुम्हारी छवि,
आवाज,
मन-मस्तिष्क में,
ज्यों की त्यों है,
किन्तु,
तुम्हें.....
देख, सुन और छू नहीं सकते।
कितनी दूर हो नहीं पता,
लगता है कि,

हो सदैव पास। 

ज़रा ठहरो तो


मुझे कहना था कुछ तुमसे,
जरा ठहरो तो,
कह दूँ मैं,

ये जो पागल बनी फिरती हूँ,
तेरे प्यार में डूबी-डूबी।
कह दो बस आज कह दो,
ग़र है तुम्हें इल्म जरा भी।
कैसे बतलाऊँ तुझको,
हो गयी मैं ख़ुद से पराई।

नहीं थी ऐसी पहले मैं,
तुम मानो या न मानो,
हो गया है प्यार तुम से,
चाहे तुम न पहचानो।

दिखते हो मुझे बस तुम ही,
जहाँ भी ये नज़र जाती है।
तेरी आवाज़ की दिशा में,
दिल खिंचा चला जाता है,
तेरे कदमों की आहट सुन,
झट उठ कर चल देती हूँ।

चलता नहीं,
अब अपना कुछ,
बस सपनों में खोई रहती हूँ।
नहीं होश है अब,
दिन-रात का,
ना भूख-प्यास लगती है।

क्यों हँस देते हो मुझ पर,
जब हाल बयां करती हूँ,
क्यों चल देते हो उठ कर,
जब मैं रुकने कहती हूँ।  




             

पुराने दिन

ओह,
कहाँ समझ पाओगे मुझे,
क्योंकि,
हमारे दिलो - दिमाग,
के पैटर्न की मैचिंग ही नहीं है।
मैं हँसती हूँ,
तुम्हें सुखी देख,
तुम अपना चेहरा गंभीर बना लेते हो,
तुम्हें लगता है,
कुछ माँगने आई है।
मैं तुम्हारी ओर बढ़ाती हूँ,
हाथ,
यह सोचकर,
कि तुम से कहूँगी,
चलो ...
बहुत हुआ काम,
अब मेरे साथ सैर पर चलो।
पर तुम ..
मुझे गहरी नज़र से देखते हो,
और सोचते हो,
मुझे कुछ काम होगा...

याद हैं ?
वो पुराने दिन....
घंटों मेरे लिए,
धूप में इंतजार किया करते थे,
तुम्हें शहर जाना था,
अपनी बालियाँ बेचकर,
तुम्हारे लिए सूट लेकर आई थी,
माँ की मार खाकर भी,
मुस्कुरा रही थी, 
क्योंकि मेरी आँखों में,
तुम्हारी छवि थी।
लगता है,
सचमुच भूल गए तुम,
आम के बगीचे,
झूले,
तालाब किनारे की हरी घास,
और मेरे हाथों की कशीदाकारी से,
सजे सुन्दर रुमाल।
हाँ........
आगे बढ़ने के लिए,
पुराने दिन और,
पुराने लोग.....
दोनों को ही,
पैरों तले रौंदना पड़ता है।
चलो,
यहाँ तक मैं ने ,
समझा लिया मन को।
पर ये क्या कह दिया,
 आज तुमने,
मैं तो सिर्फ,
तुम्हें देखने आई थी,
तुम्हारी पसंद के बेसन के लड्डू लेकर,
तुमने कैसे कह दिया ?
आने का परपस बताओ,
चापलूसी की जरूरत नहीं है।












अकथ्य पीड़ाएँ



तटस्थता का भाव,
अंतर्द्वन्द्व,
व्यग्र मन,
उड़ेल देना चाहता है,
सब कुछ,
उनके समक्ष,
जिन्हें,
बहुत प्यार,
विश्वास और,
अपनापन देती हूँ,
बहुत कुछ,
कहती -सुनती हूँ,
किन्तु कैसे कहूँ,

अकथ्य पीड़ाएँ।    

अव्यक्त



बातें दिमाग से नहीं उतरती,
उन पर समय की,
परत चढ़ जाती है।
रहती हैं यादें,
फिर भी,
ज्यों की त्यों,
यद्यपि हो जातीं धुंधली।
मन के आँगन में,
जब कभी…..
खिलती है धूप,
और छंटती है धुंध,
मन की छटपटाहट,
रहती है,

अव्यक्त।