Wednesday 15 March 2017

हास्य घटता जा रहा


बढ रहा है क्रंदन,
हास्य घटता जा रहा।
प्रेम-भाव दूर गए,
उपहास बढ़ता जा रहा।
सरल हो गए,
आधुनिक उपकरणों से काम,
घर-बाहर के तमाम,
फिर भी मिलता क्यूँ नहीं,
लोगों को आराम।
सुबह जहाँ से चलते हैं,
वहीं पे होती शाम।
इलाज़ तरह – तरह के आए,
स्वास्थ्य घटता जा रहा।
घर रह गया है,
सिर्फ मकान,
लोगों से भरा हुआ गोदाम।
अर्जन कर जितना भी लाता,
ऊँट के मुँह-जीरा,
हो जाता।
आबादी निरंतर बढ़ रही,
और साथ घटता जा रहा।
जहाँ थे पहले खेत-खलिहान,
आज हैं,
सड़क,
बाज़ार,
दूकान।
बाग-बगीचे,
सिमट कर गमले में आ गए,
फूल को तो,
भूल चुके,
कैक्टस हैं छा गए,
रास्तों का जाल बिछ गया,

एहसास घटता जा रहा।   

No comments:

Post a Comment