Friday 16 December 2016

प्रेम की वज़ह

           
तुम्हारे प्रेम - प्रस्ताव,
को तो उसे,
ठुकराना ही था,
आखिर,
तुम्हारे इस तथाकथित,
प्रेम की वज़ह,
वह समझ जो गयी थी।
तुम्हारा वह तकियाकलाम वाक्य-
तुम कितनी सुन्दर हो प्रिय,
भेद खोल देता है,
तुम्हारे उस अंतर्जगत का,
जो आदी है,
स्त्री को,
एक शोभायमान वस्तु के रूप में,
देखने का,
जिसे वह अपने,
बैठक में,
सजा लेना चाहता है,
सबसे पहले।
ताकि मित्रों,
रिश्तेदारों पर,
रोब गाँठने का,
एक स्थायी साधन,
प्राप्त हो सके।
जानती है,
वह भली - भाँति,
तुम्हारे उन सभी,
हथकंडों को,
जिनके द्वारा,
कभी प्यार,
मनुहार,
तो कभी,
तकरार से,
मनवा लोगे,
अपनी हर बात।
नहीं चाहिए,
उसे तुम्हारा ,
स्वर्ण पिंजरा।
अच्छा होता,
तुममें,
दिख जाता उसे,
एक स्वतंत्र चेता।
फिर वो रख सकती,
तुम्हारे समक्ष,
प्रस्ताव,
प्रेम का नहीं,
मैत्री का,
क्योंकि,
तुम्हारे लिए,
प्रेम व विवाह,
के मायने,
हैं,
स्त्री का,
अपने व्यक्तित्व को,
गलाकर,
तुम्हारे बनाए साँचे में,
पूर्णतः ढल जाना।
ऊँचा उठ पाने की,
अपार संभावनाओं की,
पूर्ण विस्मृति के साथ,
तुम्हारे हाथों की,
कठपुतली बन जाना।
उसकी बुद्धिमत्ता,
प्रतिभा,
तर्क -वितर्क की क्षमता से,
भयभीत तुम,
उसे रोक लेना चाहते हो,
देहरी के भीतर,
अपनी अनुगामिनी बनाकर।

No comments:

Post a Comment