Tuesday 25 October 2016

कहते होंगे

दरवाजे पर हुई,
हल्की आहट से,
आ गई,
होठों पर,
हल्की मुस्कान।
अपने ही चेहरे की,
चमक ने,
बता दिया,
वह सत्य,
जिससे आज तक,
इन्कार करती रही है।
कहते हैं,
आईना झूठ नहीं बोलता,
कहते होंगे,
तो-?
मन के दोनों पलड़े,
उलझे पड़े हैं,
लम्बे समय से।
आईने से हट,
आ गयी है,
दरवाजे के ठीक पीछे,
- बेल तो बजी नहीं,
जरूर धोखा हुआ है,
मुड़कर जाना चाहती है,
फिर से आईने की तरफ।
रोज़ खुले रहने वाले बाल,
आज बन्ध गए हैं जूड़े में,
छोटी बिंदी का स्थान भी,
बड़ी बिंदी ले चुकी है।
कहते हैं,
प्यार में इंसान,
करता है,
ऐसे ही नए - नए प्रयोग,
अपने - आपको,
बना डालता है,
प्रयोगशाला।
कहते होंगे,
तो -?
सुबह से शाम हो गयी है,
कभी गाड़ी का हॉर्न,
कभी जूतों की आहट,
कम से कम,
बीस बार,
आईने से दरवाजे तक,
कर चुकी है परेड।
बज रही है बेल,
सचमुच इस बार,
दरवाजा खोलते हुए,
इतना,
शरमा क्यों रही है ?
कहते हैं,
प्यार में इंसान,
शर्माता है यूँ ही।
कहते होंगे,
तो -?

Saturday 22 October 2016

अपनापन

आज मन,
बल्लियों उछल रहा था,
मायके जा रही थी वह,
शादी के बाद,
पहली बार,
वह भी पूरे सवा साल बाद।
अकेली जाती हुई,
खालीपन का भी अनुभव कर रही थी,
पर अब और नहीं कर सकती थी वह,
पति का इन्तजार।
माँ को न्यूमोनिया हो गया था,
और कोई नहीं था सेवा के लिए,
पिता जोड़ों के दर्द से,
कराहते रहते थे,
हर वक्त।
एक कमरे का घर,
किसी भी पल,
टूटकर गिर सकता था।
तय कर चुकी थी,
उन्हें अपने साथ लेकर आएगी।
यूँ तो हुआ करती है,
पगफेरी की रस्म,
विवाह के तीसरे या,
पाँचवें दिन बाद ही,
पर नहीं हो पाई थी,
उसकी पगफेरी।
क्योंकि सासू माँ,
बिस्तर पर थीं।
पति को अपने काम पर,
वापस जाना था,
बहुत जरूरी।
ननदों के बच्चों के,
स्कूल खुल गए थे,
जेठ - जिठानी पहले ही,
अलग हो चुके थे,
नहीं थी उन्हें बुजुर्गों के,
जीने - मरने की चिंता।
बल्कि जिठानी,
गाहे - बगाहे,
चारदीवारी के उस पार से,
सुनाया करती थी -
बूढ़े शरीर को,
कहीं दवा लगती है भला?
और कितना जिएंगे?
इन्होंने तो जी ली अपनी ज़िन्दगी,
इनकी खातिर लोग,
अब अपनी ज़िन्दगी,
खराब करें।
हाँ नी तो।
मेरे भरोसे तो रहें न।
जिनके बस की हो,
वही करें सेवा फेवा।
सब बुड्ढे - बुड्ढी के,
कर्मों के फल हैं,
भगवान के घर भी,
नहीं है जगह,
ऐसों के लिए।
न जाने किसके लिए,
रख छोड़ी है,
सारी कमाई,
मेरे लिए तो,
कभी कुछ निकला ही नहीं।
अब आई है लाडली छोटी बहू,
उसे ही देंगे,
अपना गड़ा खज़ाना।
मैं तो चन्दन से मालिश करती,
और दूध से नहलाती,
खाने के लिए छप्पन भोग परोसती,
पर बुड्ढे - बुड्ढी को,
मेरी कद्र हो तब न।
सास - ससुर सुनते,
खून का घूँट पीते रहते।
एक दिन उससे रहा न गया -
बोल पड़ी -
सोचो दीदी,
यदि हमारी बहुएँ कल को,
ऐसा कुछ बोलें तो -
मेरी क्यों बोलेंगी,
मैं तो उन्हें,
आते ही रानी बना दूंगी,
इनकी तरह,
रोक -टोक नहीं करूँगी,
रही तेरी बात,
तो पहले बेटे का मुँह देखना,
तो नसीब हो।
सोचने लगी थी,
ऐसा क्यों कहा?
पर उत्तर उस दिन मिल गया,
जब पड़ोसन ने चुपके से,
बताया था -
धोखा हुआ है,
उसके साथ।
दिल्ली जाने पर वह,
उसके पति के घर भी,
गयी थी।
वहाँ वह,
एक लड़की के साथ,
एक ही कमरे में रहता है।
वह विश्वास नहीं करना चाह रही थी,
पर यह भी जानती थी,
कि बिना आग के धुंआँ,
नहीं उठता है।
शायद माँ - पिताजी ने भी,
कुछ सुन रखा था -
विदाई  के वक्त,
पल्ले में गाँठ मारकर,
माँ ने सीख दी थी -
हमेशा अपने पति पर,
भरोसा रखना,
दुनिया बिगाड़ेगी,
पर बिगड़ना मत।
एक पल के लिए,
बहुत क्रोध आया,
फिर सोचा -
गरीबी इंसान से,
कुछ भी करवा लेती है,
उसके माँ - पिता को,
ये तसल्ली थी,
कि इस शादी से,
बेटी को और सुख मिले न मिले,
उनके बाद,
बेटी के सर पर,
एक छत तो होगी।
सचमुच सास ससुर ने,
एक घर तो रहने को,
दिया ही था,
जिसमें उसके लिये,
अलग कमरा भी था।
अब पति ने कभी,
उसमें झाँका तक नहीं,
तो ये उसकी बदकिस्मती।
आज तक पति ने,
एक भी पत्र नहीं लिखा था,
अपने माता - पिता को भी नहीं,
न ही एक रु. भेजा। 
छह महीने की सेवा से,
सास छड़ी पकड़ कर,
चलने लगी थी।
सास - ससुर की,
सारी जमा - पूँजी,
समाप्तप्राय थी,
सास के जेवर,
बड़े बेटे की पढ़ाई में,
पहले ही बिक चुके थे,
फिर भी बेटे - बहू को,
माँ से शिकायतें ही थीं।
अपने भाई - भाभी भी तो.....
उसने गहरी साँस ली,
माँ ने फ़ोन पर रोते हुए,
कहा था -
उसके विदा होते ही,
भाई - भाभी का बर्ताव,
पहले से भी खराब हो गया।
सुन कर फफक - फफक,
रोई थी वह,
काश!
भैया जितना,
मुझे भी पढ़ाया होता,
उतना नहीं तो,
कम से कम,
दसवीं तक ही।
अलग तो थे ही,
मीठा - मीठा बोलकर,
बहन की शादी का ,
पूरा खर्च उठाने का वादा कर,
पिता से,
घर और दुकान के दस्तावेज़ पर,
अँगूठा निशान,
भी पहले ही,
ले चुके थे।
उसने तब भी रोका था,
पिता उन दिनों पुत्र के प्रेम में,
अँधे थे,
बेटी की एक न सुनी थी -
हँस कर बोले थे,
सब कुछ तो,
बेटे - बहू का ही है,
हम दोनों दो रोटी खाएँगे,
एक कोने में बैठे - सोए रहेंगे,
वैसे भी तू,
पराई अमानत है,
घर के मामलों में मत पड़।
तेरा भैया राजा दूल्हा लाएगा,
उसके सँग विदा हो जाना।
अब उनका ज़िंदा रहना भी,
नहीं सह पा रहे थे,
हर चीज़ छीनने की,
कोशिश करते,
यह कह कर,
कौन सा ये सब,
आपको साथ ले जाना है।
ठान लिया था,
कुछ करेगी,
वही अब,
पास ही एक अंग्रेज़ी,
स्कूल था,
जाकर काम माँगा था,
काम मिल भी गया था,
जब वहाँ,
आया कहकर,
पुकारा जाता,
भीतर तीर सा चुभता,
वेतन के दस हज़ार के सामने,
वो चुभन कम पड़ जाती,
छह हज़ार में चलाती थी घर,
चार हज़ार बचा लेती थी।
काम भी,
दस लोगों का था,
पर वो फिर भी खुश थी,
कि यदि यह काम नहीं मिला होता,
तो क्या करती।
एक दिन हिम्मत जुटा कर बोली थी-
मैडम मेरा नाम लक्ष्मी है,
आप लोग वही बुलाएँ।
सुबह चार बजे उठ,
घर का काम निबटाती,
खाना बना कर,
सास -ससुर को खिलाती,
दोपहर का खाना भी,
उनके लिये रखकर,
अपना डिब्बा,
तैयार करती,
खुद तैयार होकर खाना खाकर,
छह बजे स्कूल जाती,
पाँच बजे तक लौटती।
और लड़कियाँ पहली बार,
पति के साथ,
मायके लौटती हैं,
वह जा रही है,
अकेली,
दिन भर के लिए,
गाड़ी रिज़र्व किया था,
ससुर जी ने,
साथ चलने की,
बात कही थी,
जिस पर उसने कहा था-
वापसी में,
माँ - पिताजी को,
लेकर आ रही हूँ,
सदा के लिए,
आप यहीं रुकें।
यह सुन,
उन्हें अच्छा नहीं,
लगा था -
बोले-
लोग क्या कहेंगे?
उसने भी,
पलट कर कहा -
लोग तो यह भी कहते हैं,
कि आपका बेटा,
दिल्ली में,
किसी लड़की के साथ,
रहता है।
ससुर चुप हो गए थे,
माँ - पिता ने भी,
वही दलीलें दी थी,
एक नहीं सुनी थी उसने।
वापस आते - आते,
अँधेरा हो गया था,
जाड़े के छोटे से दिन।
आते ही ससुर ने,
कहा -
कैसे बताऊँ,
पर आज छोटे ने फ़ोन कर कहा है,
तुझसे तलाक चाहता है।
सुनकर,
एक पल के लिए,
पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गयी।
माँ पिता,
जीवन भर के श्रम के बदले,
बेटी समेत बेघर होने को विवश हैं।
फ़ोन जेठ जी के घर ही आते,
उसकी हर बर्बादी पर,
जिठानी हँसती,
वह सोचने लगी -
आज तो वह,
ख़ुशी से नाच रही होगी।
आँखों से आँसू,
बरसने लगे,
जिन्हें रोकने का,
असफल प्रयास करती हुई बोली -,
ठीक है,
ले लें तलाक,
ये भी कोई रिश्ता है,
मुँह तक तो,
ठीक से,
देखा नहीं,
एक - दूसरे का,
काहे के पति - पत्नी?
हमें छोड़ जाओगी बेटी?
सास ने हाथ पकड़ कर,
पूछा था -
जाना ही पड़ेगा।
उसने धीरे से कहा,
अब तक उस घर पर वह,
अपना पूरा अधिकार मानने लगी थी।
चली जाऊँगी,
अपने माता - पिता के साथ,
जहाँ भी वक्त ले जाएगा,
जहाँ क्यों,
यहीं रहेंगे,
इसी घर में,
हम पाँचों,
मेरा बेटा छोटू नहीं,
तू है।
- बाबूजी,
अभी तो आप भावुक हो रहे हैं,
बाद की बाद में,
देखेंगे,
रिश्ता तो वैसे भी,
आप दोनों से ही जुड़ा था,
आपके बेटे से कहाँ?
अपनापन,
समझौता,
जो भी नाम दे दें।

Tuesday 18 October 2016

सम्प्रेषण

आँखों की जुबां होती है,
यह तो सब कहते हैं,
पर जुबां तो,
जर्रे - जर्रे की होती है।
अगर,
नेत्र बन्द कर लिए जाएँ,
तब भी,
एहसास हो जाता है,
वह सब......
जो देखकर या सुनकर होता…
हवा, पानी,आसमान,मिट्टी,
इन सब में,
न जाने कैसे,
घुल जाती हैं,
भावनाएं,
जो पहुँच जाती हैं,
मन - मष्तिष्क तक.....
तभी तो,
महसूस हो जाता है,
वह भी,
जो अदृश्य अश्रव्य है।

हमलोग

कभी - कभी,
लगता है…
कि ये दुनिया,
कितनी सुन्दर है,
पर फिर कभी,
लगता है,
इसके विपरीत।
आखिर,
हमलोग ही तो हैं,
इसके लिए ज़िम्मेदार।
ईश्वर कह लें,
या कोई शक्ति,
एक नया शब्द,
गॉड पार्टिकल भी है,
सरल शब्दों में कहें तो प्रकृति,
इनमें से कुछ भी,
ने तो,
वाकई बनाया,
सब कुछ,
बहुत सुन्दर।
और हमें भी तो,
उसी ने,
बनाया है,
कहाँ था उसे भी अंदाज़ा,
हमारी अथाह,
स्वार्थपरता का,
जिसमें आकण्ठ डूबकर,
काटने लगे हम,
उसी डाल को,
जिस पर बैठे थे।
आखिर,
हम क्यों नहीं कर पाते,
इस सुन्दर दुनिया की कद्र,
क्यों चढ़ जाता है,
आँखों पर टिन का चश्मा,
कहाँ से भर जाता है,
हमारे,
हृदयों में मैल?
क्यों हमारी दुनिया,
सीमित हो जाती है,
बस अपने ही,
इर्द - गिर्द।
छोटा ही,
होता जाता है,
यह दायरा,
सिमट जाते हैं,
निज शरीर तक,
जिसमें आत्मा जैसी,
अनावश्यक वस्तु का,
कोई वजूद नहीं होता,
बनाने लगते हैं,
रिश्तों को सीढ़ी।
न जाने क्यों,
अपनों की,
लाशों पर,
खड़े होकर,
ऊँचा दिखना चाहते हैं?
दुर्लभ होती जा रही है,
निश्छलता,
ईमानदारी।
कोसों दूर जा रहे हैं,
अच्छाइयों से हम।
दूरी जितनी ही,
बढ़ती जा रही है....
हम लोग खुश हो रहे हैं,
कह रहे हैं,
हम आगे बढ़ रहे हैं

Monday 3 October 2016

कठोर नियंत्रण

आ ही जाता है,
आखिर,
मन को मारकर जीना भी।
मन तो चाहता है,
आकाश में उड़ना।
अब मन के चाहने से,
उड़ा तो नहीं जाता न।
तो मन को,
पहले पहल,
बहलाना - फुसलाना,
समझाना - बुझाना,
और,
अधिक मचलने पर,
मारना ही पड़ता है।
इस मन की तो,
रोज़ ही,
एक नई चाहत,
सामने आती है।
बात चाहत तक ही रहे,
तो फिर भी सम्भल जाए,
यहाँ तो मन है कि,
जिद ठान लेता है।
कहाँ तक पूरा करे कोई,
इस जिद्दी मन की,
ख्वाहिशों को,
कोई मनाए भी,
तो कैसे उसे?
पलट कर सवाल करता है -
पूछता है -
क्यों मारा मुझे इतनी बार,
कि मेरा अस्तित्व ही मिटने लगा ?
ठीक है,
मेरी कुछ चाहतें,
असंभव होती हैं,
पर सारी तो नहीं ?
हर बार,
मुझे ही क्यों,
पीछे धकेल दिया ?
कभी दबाकर,
कभी कुचलकर,
तो कभी मसलकर,
और तो और,
कागज़ की तरह मोड़कर,
दबा दिया डायरी में,
और,
खिसका दिया,
तकिये के नीचे।
मुड़कर और दबकर तो,
कागज़ में भी,
पड़ जाते हैं निशान,
पड़ने लगती है,
दरार भी।
फिर कुछ दिनों बाद,
बदल जाता है,
क्रमशः वह,
टुकड़ों और चिंदियों में,
फिर,
क्या होता होगा मेरा,
सोचा है कभी ?
हर बार,
मेरी तरफ से,
मुँह मोड़कर,
महान बनने की,
कोशिश की है, तुमने।
इन तर्कों से,
हैरान - परेशान,
आहत होकर भी,
कैसे समझाए कोई,
कि कितनी मजबूरी,
मुश्किल और,
कठिनाई में कोई,
रोक लेता है,
आंसुओं को गले में,
और मुस्कान को पीस देता है,
दांतों से,
ताकि पहुँच ही न सके,
होठों तक।
कितने दिन - रात,
की तपस्या के पश्चात,
सीख पाता है,
मन को मारकर जीना।