Monday 3 October 2016

कठोर नियंत्रण

आ ही जाता है,
आखिर,
मन को मारकर जीना भी।
मन तो चाहता है,
आकाश में उड़ना।
अब मन के चाहने से,
उड़ा तो नहीं जाता न।
तो मन को,
पहले पहल,
बहलाना - फुसलाना,
समझाना - बुझाना,
और,
अधिक मचलने पर,
मारना ही पड़ता है।
इस मन की तो,
रोज़ ही,
एक नई चाहत,
सामने आती है।
बात चाहत तक ही रहे,
तो फिर भी सम्भल जाए,
यहाँ तो मन है कि,
जिद ठान लेता है।
कहाँ तक पूरा करे कोई,
इस जिद्दी मन की,
ख्वाहिशों को,
कोई मनाए भी,
तो कैसे उसे?
पलट कर सवाल करता है -
पूछता है -
क्यों मारा मुझे इतनी बार,
कि मेरा अस्तित्व ही मिटने लगा ?
ठीक है,
मेरी कुछ चाहतें,
असंभव होती हैं,
पर सारी तो नहीं ?
हर बार,
मुझे ही क्यों,
पीछे धकेल दिया ?
कभी दबाकर,
कभी कुचलकर,
तो कभी मसलकर,
और तो और,
कागज़ की तरह मोड़कर,
दबा दिया डायरी में,
और,
खिसका दिया,
तकिये के नीचे।
मुड़कर और दबकर तो,
कागज़ में भी,
पड़ जाते हैं निशान,
पड़ने लगती है,
दरार भी।
फिर कुछ दिनों बाद,
बदल जाता है,
क्रमशः वह,
टुकड़ों और चिंदियों में,
फिर,
क्या होता होगा मेरा,
सोचा है कभी ?
हर बार,
मेरी तरफ से,
मुँह मोड़कर,
महान बनने की,
कोशिश की है, तुमने।
इन तर्कों से,
हैरान - परेशान,
आहत होकर भी,
कैसे समझाए कोई,
कि कितनी मजबूरी,
मुश्किल और,
कठिनाई में कोई,
रोक लेता है,
आंसुओं को गले में,
और मुस्कान को पीस देता है,
दांतों से,
ताकि पहुँच ही न सके,
होठों तक।
कितने दिन - रात,
की तपस्या के पश्चात,
सीख पाता है,
मन को मारकर जीना।

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