Tuesday 27 December 2016

अनचाही से मनचाही

खुले शब्दों में की थी कामना अपने ही पूर्वजों ने,
अपने घर पुत्र और पड़ोसी के घर पुत्री के जन्म की।
हाँ बाँटनेवालों ने कुछ भी कहाँ छोड़ा था,
औरतों के लिए ? न शस्त्र, न शास्त्र,
न खुलकर हँसने - बोलने, प्रश्न करने का अधिकार।
न पैतृक संपत्ति,न ही छाता और चरणपादुका जैसी,
सिर और पैर की सुरक्षा के साधन।
कहने को दिए थे दो घर,
एक में शर्त थी पैदा होने, दूसरे में मरने की,
घरों के मालिक थे पिता, भाई,पति और बेटे।
उसके हिस्से थी चूल्हा - चक्की,ऊखल - मूसल, ढेकी
मर्दों के लिए था दूध और उसके लिए गोबर,
जिससे लीपती थी घर - आँगन मुँह अँधेरे उठकर,
दिन भर जिसे पाथ कर जुटाती थी ईंधन,
बनाती थी नाना प्रकार के व्यंजन,
पर खाती थी सबको खिलाकर बचा - खुचा।
खटते खटते जाने कब बाँचने लगीं अक्षर,
जी तोड़ श्रम करती हुई देने लगीं महारथियों को टक्कर।
पकी ईंट सी तैयार हो निकलने लगीं भट्टियों से,
विराजमान होने लगीं बड़ी कुर्सियों पर।
बनाने लगीं अपनी पहचान ही नहीं अपना घर भी,
लाने लगीं देश के लिए मेडल,
करने लगीं माता - पिता, गाँव और देश का नाम रौशन।

Friday 16 December 2016

प्रेम की वज़ह

           
तुम्हारे प्रेम - प्रस्ताव,
को तो उसे,
ठुकराना ही था,
आखिर,
तुम्हारे इस तथाकथित,
प्रेम की वज़ह,
वह समझ जो गयी थी।
तुम्हारा वह तकियाकलाम वाक्य-
तुम कितनी सुन्दर हो प्रिय,
भेद खोल देता है,
तुम्हारे उस अंतर्जगत का,
जो आदी है,
स्त्री को,
एक शोभायमान वस्तु के रूप में,
देखने का,
जिसे वह अपने,
बैठक में,
सजा लेना चाहता है,
सबसे पहले।
ताकि मित्रों,
रिश्तेदारों पर,
रोब गाँठने का,
एक स्थायी साधन,
प्राप्त हो सके।
जानती है,
वह भली - भाँति,
तुम्हारे उन सभी,
हथकंडों को,
जिनके द्वारा,
कभी प्यार,
मनुहार,
तो कभी,
तकरार से,
मनवा लोगे,
अपनी हर बात।
नहीं चाहिए,
उसे तुम्हारा ,
स्वर्ण पिंजरा।
अच्छा होता,
तुममें,
दिख जाता उसे,
एक स्वतंत्र चेता।
फिर वो रख सकती,
तुम्हारे समक्ष,
प्रस्ताव,
प्रेम का नहीं,
मैत्री का,
क्योंकि,
तुम्हारे लिए,
प्रेम व विवाह,
के मायने,
हैं,
स्त्री का,
अपने व्यक्तित्व को,
गलाकर,
तुम्हारे बनाए साँचे में,
पूर्णतः ढल जाना।
ऊँचा उठ पाने की,
अपार संभावनाओं की,
पूर्ण विस्मृति के साथ,
तुम्हारे हाथों की,
कठपुतली बन जाना।
उसकी बुद्धिमत्ता,
प्रतिभा,
तर्क -वितर्क की क्षमता से,
भयभीत तुम,
उसे रोक लेना चाहते हो,
देहरी के भीतर,
अपनी अनुगामिनी बनाकर।

Wednesday 9 November 2016

वक्त का सफ़र

गुज़र जाता है,
वक्त का,
लम्बा फासला,
देखते ही देखते,
बस पलक झपकते ही।
पीछे मुड़कर,
देखने पर,
दीखते हैं,
कुछ दृश्य,
श्वेत - श्याम,
सिनेमा के दृश्यों की तरह।
आँखें बंद कर,
ध्यान लगाने पर,
सुनाई देती हैं,
कुछ आवाज़ें,
जो किसी पौराणिक कथा के,
आख्यान सी,
लगती हैं।
वक्त गुजर जाता है,
बहुत तेजी से।
लोग,
इसके साथ चलने की कोशिशों में,
तेज चलकर,
या,
दौड़कर भी,
छूट जाते हैं,
वहीं कहीं,
जहाँ उन्होने,
पूरे किये थे,
चौदह - पन्द्रह बरस से लेकर,
चौबीस - पच्चीस बरस।
कुछ विशेष चैतन्य लोग,
खींच ले जाते हैं,
इस सफ़र को,
बेशक,
वहाँ तक,
जहाँ उनहोंने,
पूरे किए थे,
चौन्तीस - पैंतीस बरस।
नहीं - नहीं,
एकदम से,
समाप्त नहीं हो जाता है सब कुछ,
बड़ी चुप्पी,
चतुराई और धीमी गति से,
वक्त निकल जाता है,
कहीं आगे।
लोग उसके साथ चलने की कोशिश में,
अक्सर,
घिसटने लगते हैं।
कभी कभी,
कुछ लोग यूँ ही,
घिसटते चले जाते हैं,
सौ या उससे भी अधिक वर्षों तक।
पीछे मुड़कर,
स्वयं को देखते,
मुग्ध होते,
पन्द्रह से पच्चीस की,
उम्र  के बीच कहीं,
जब अनगिनत,
उम्मीदें,
आशाएं,
आकांक्षाएं,
बाँहें पसारकर,
करती थीं,
स्वागत।

समुचित उत्तर

कभी - कभी,
बिल्ली के भाग्य से,
सींका टूट जाता है,
और बिल्ली उसे,
अपनी योग्यता,
प्रतिभा और,
विद्वता का,
कमाल बताती है।
क्या कहा जाये,
ऐसे में?
बिल्ली के,
वक्तव्यों की,
प्रतिक्रियास्वरूप,
कुछ मुस्कुराकर रह जाते हैं,
कुछ क्रोधित होते हैं,
तो कुछ प्रतीक्षा करते हैं,
सही वक्त और परिस्थिति का,
जब दे पाएँगे,
वो भी समुचित उत्तर।

Tuesday 25 October 2016

कहते होंगे

दरवाजे पर हुई,
हल्की आहट से,
आ गई,
होठों पर,
हल्की मुस्कान।
अपने ही चेहरे की,
चमक ने,
बता दिया,
वह सत्य,
जिससे आज तक,
इन्कार करती रही है।
कहते हैं,
आईना झूठ नहीं बोलता,
कहते होंगे,
तो-?
मन के दोनों पलड़े,
उलझे पड़े हैं,
लम्बे समय से।
आईने से हट,
आ गयी है,
दरवाजे के ठीक पीछे,
- बेल तो बजी नहीं,
जरूर धोखा हुआ है,
मुड़कर जाना चाहती है,
फिर से आईने की तरफ।
रोज़ खुले रहने वाले बाल,
आज बन्ध गए हैं जूड़े में,
छोटी बिंदी का स्थान भी,
बड़ी बिंदी ले चुकी है।
कहते हैं,
प्यार में इंसान,
करता है,
ऐसे ही नए - नए प्रयोग,
अपने - आपको,
बना डालता है,
प्रयोगशाला।
कहते होंगे,
तो -?
सुबह से शाम हो गयी है,
कभी गाड़ी का हॉर्न,
कभी जूतों की आहट,
कम से कम,
बीस बार,
आईने से दरवाजे तक,
कर चुकी है परेड।
बज रही है बेल,
सचमुच इस बार,
दरवाजा खोलते हुए,
इतना,
शरमा क्यों रही है ?
कहते हैं,
प्यार में इंसान,
शर्माता है यूँ ही।
कहते होंगे,
तो -?

Saturday 22 October 2016

अपनापन

आज मन,
बल्लियों उछल रहा था,
मायके जा रही थी वह,
शादी के बाद,
पहली बार,
वह भी पूरे सवा साल बाद।
अकेली जाती हुई,
खालीपन का भी अनुभव कर रही थी,
पर अब और नहीं कर सकती थी वह,
पति का इन्तजार।
माँ को न्यूमोनिया हो गया था,
और कोई नहीं था सेवा के लिए,
पिता जोड़ों के दर्द से,
कराहते रहते थे,
हर वक्त।
एक कमरे का घर,
किसी भी पल,
टूटकर गिर सकता था।
तय कर चुकी थी,
उन्हें अपने साथ लेकर आएगी।
यूँ तो हुआ करती है,
पगफेरी की रस्म,
विवाह के तीसरे या,
पाँचवें दिन बाद ही,
पर नहीं हो पाई थी,
उसकी पगफेरी।
क्योंकि सासू माँ,
बिस्तर पर थीं।
पति को अपने काम पर,
वापस जाना था,
बहुत जरूरी।
ननदों के बच्चों के,
स्कूल खुल गए थे,
जेठ - जिठानी पहले ही,
अलग हो चुके थे,
नहीं थी उन्हें बुजुर्गों के,
जीने - मरने की चिंता।
बल्कि जिठानी,
गाहे - बगाहे,
चारदीवारी के उस पार से,
सुनाया करती थी -
बूढ़े शरीर को,
कहीं दवा लगती है भला?
और कितना जिएंगे?
इन्होंने तो जी ली अपनी ज़िन्दगी,
इनकी खातिर लोग,
अब अपनी ज़िन्दगी,
खराब करें।
हाँ नी तो।
मेरे भरोसे तो रहें न।
जिनके बस की हो,
वही करें सेवा फेवा।
सब बुड्ढे - बुड्ढी के,
कर्मों के फल हैं,
भगवान के घर भी,
नहीं है जगह,
ऐसों के लिए।
न जाने किसके लिए,
रख छोड़ी है,
सारी कमाई,
मेरे लिए तो,
कभी कुछ निकला ही नहीं।
अब आई है लाडली छोटी बहू,
उसे ही देंगे,
अपना गड़ा खज़ाना।
मैं तो चन्दन से मालिश करती,
और दूध से नहलाती,
खाने के लिए छप्पन भोग परोसती,
पर बुड्ढे - बुड्ढी को,
मेरी कद्र हो तब न।
सास - ससुर सुनते,
खून का घूँट पीते रहते।
एक दिन उससे रहा न गया -
बोल पड़ी -
सोचो दीदी,
यदि हमारी बहुएँ कल को,
ऐसा कुछ बोलें तो -
मेरी क्यों बोलेंगी,
मैं तो उन्हें,
आते ही रानी बना दूंगी,
इनकी तरह,
रोक -टोक नहीं करूँगी,
रही तेरी बात,
तो पहले बेटे का मुँह देखना,
तो नसीब हो।
सोचने लगी थी,
ऐसा क्यों कहा?
पर उत्तर उस दिन मिल गया,
जब पड़ोसन ने चुपके से,
बताया था -
धोखा हुआ है,
उसके साथ।
दिल्ली जाने पर वह,
उसके पति के घर भी,
गयी थी।
वहाँ वह,
एक लड़की के साथ,
एक ही कमरे में रहता है।
वह विश्वास नहीं करना चाह रही थी,
पर यह भी जानती थी,
कि बिना आग के धुंआँ,
नहीं उठता है।
शायद माँ - पिताजी ने भी,
कुछ सुन रखा था -
विदाई  के वक्त,
पल्ले में गाँठ मारकर,
माँ ने सीख दी थी -
हमेशा अपने पति पर,
भरोसा रखना,
दुनिया बिगाड़ेगी,
पर बिगड़ना मत।
एक पल के लिए,
बहुत क्रोध आया,
फिर सोचा -
गरीबी इंसान से,
कुछ भी करवा लेती है,
उसके माँ - पिता को,
ये तसल्ली थी,
कि इस शादी से,
बेटी को और सुख मिले न मिले,
उनके बाद,
बेटी के सर पर,
एक छत तो होगी।
सचमुच सास ससुर ने,
एक घर तो रहने को,
दिया ही था,
जिसमें उसके लिये,
अलग कमरा भी था।
अब पति ने कभी,
उसमें झाँका तक नहीं,
तो ये उसकी बदकिस्मती।
आज तक पति ने,
एक भी पत्र नहीं लिखा था,
अपने माता - पिता को भी नहीं,
न ही एक रु. भेजा। 
छह महीने की सेवा से,
सास छड़ी पकड़ कर,
चलने लगी थी।
सास - ससुर की,
सारी जमा - पूँजी,
समाप्तप्राय थी,
सास के जेवर,
बड़े बेटे की पढ़ाई में,
पहले ही बिक चुके थे,
फिर भी बेटे - बहू को,
माँ से शिकायतें ही थीं।
अपने भाई - भाभी भी तो.....
उसने गहरी साँस ली,
माँ ने फ़ोन पर रोते हुए,
कहा था -
उसके विदा होते ही,
भाई - भाभी का बर्ताव,
पहले से भी खराब हो गया।
सुन कर फफक - फफक,
रोई थी वह,
काश!
भैया जितना,
मुझे भी पढ़ाया होता,
उतना नहीं तो,
कम से कम,
दसवीं तक ही।
अलग तो थे ही,
मीठा - मीठा बोलकर,
बहन की शादी का ,
पूरा खर्च उठाने का वादा कर,
पिता से,
घर और दुकान के दस्तावेज़ पर,
अँगूठा निशान,
भी पहले ही,
ले चुके थे।
उसने तब भी रोका था,
पिता उन दिनों पुत्र के प्रेम में,
अँधे थे,
बेटी की एक न सुनी थी -
हँस कर बोले थे,
सब कुछ तो,
बेटे - बहू का ही है,
हम दोनों दो रोटी खाएँगे,
एक कोने में बैठे - सोए रहेंगे,
वैसे भी तू,
पराई अमानत है,
घर के मामलों में मत पड़।
तेरा भैया राजा दूल्हा लाएगा,
उसके सँग विदा हो जाना।
अब उनका ज़िंदा रहना भी,
नहीं सह पा रहे थे,
हर चीज़ छीनने की,
कोशिश करते,
यह कह कर,
कौन सा ये सब,
आपको साथ ले जाना है।
ठान लिया था,
कुछ करेगी,
वही अब,
पास ही एक अंग्रेज़ी,
स्कूल था,
जाकर काम माँगा था,
काम मिल भी गया था,
जब वहाँ,
आया कहकर,
पुकारा जाता,
भीतर तीर सा चुभता,
वेतन के दस हज़ार के सामने,
वो चुभन कम पड़ जाती,
छह हज़ार में चलाती थी घर,
चार हज़ार बचा लेती थी।
काम भी,
दस लोगों का था,
पर वो फिर भी खुश थी,
कि यदि यह काम नहीं मिला होता,
तो क्या करती।
एक दिन हिम्मत जुटा कर बोली थी-
मैडम मेरा नाम लक्ष्मी है,
आप लोग वही बुलाएँ।
सुबह चार बजे उठ,
घर का काम निबटाती,
खाना बना कर,
सास -ससुर को खिलाती,
दोपहर का खाना भी,
उनके लिये रखकर,
अपना डिब्बा,
तैयार करती,
खुद तैयार होकर खाना खाकर,
छह बजे स्कूल जाती,
पाँच बजे तक लौटती।
और लड़कियाँ पहली बार,
पति के साथ,
मायके लौटती हैं,
वह जा रही है,
अकेली,
दिन भर के लिए,
गाड़ी रिज़र्व किया था,
ससुर जी ने,
साथ चलने की,
बात कही थी,
जिस पर उसने कहा था-
वापसी में,
माँ - पिताजी को,
लेकर आ रही हूँ,
सदा के लिए,
आप यहीं रुकें।
यह सुन,
उन्हें अच्छा नहीं,
लगा था -
बोले-
लोग क्या कहेंगे?
उसने भी,
पलट कर कहा -
लोग तो यह भी कहते हैं,
कि आपका बेटा,
दिल्ली में,
किसी लड़की के साथ,
रहता है।
ससुर चुप हो गए थे,
माँ - पिता ने भी,
वही दलीलें दी थी,
एक नहीं सुनी थी उसने।
वापस आते - आते,
अँधेरा हो गया था,
जाड़े के छोटे से दिन।
आते ही ससुर ने,
कहा -
कैसे बताऊँ,
पर आज छोटे ने फ़ोन कर कहा है,
तुझसे तलाक चाहता है।
सुनकर,
एक पल के लिए,
पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गयी।
माँ पिता,
जीवन भर के श्रम के बदले,
बेटी समेत बेघर होने को विवश हैं।
फ़ोन जेठ जी के घर ही आते,
उसकी हर बर्बादी पर,
जिठानी हँसती,
वह सोचने लगी -
आज तो वह,
ख़ुशी से नाच रही होगी।
आँखों से आँसू,
बरसने लगे,
जिन्हें रोकने का,
असफल प्रयास करती हुई बोली -,
ठीक है,
ले लें तलाक,
ये भी कोई रिश्ता है,
मुँह तक तो,
ठीक से,
देखा नहीं,
एक - दूसरे का,
काहे के पति - पत्नी?
हमें छोड़ जाओगी बेटी?
सास ने हाथ पकड़ कर,
पूछा था -
जाना ही पड़ेगा।
उसने धीरे से कहा,
अब तक उस घर पर वह,
अपना पूरा अधिकार मानने लगी थी।
चली जाऊँगी,
अपने माता - पिता के साथ,
जहाँ भी वक्त ले जाएगा,
जहाँ क्यों,
यहीं रहेंगे,
इसी घर में,
हम पाँचों,
मेरा बेटा छोटू नहीं,
तू है।
- बाबूजी,
अभी तो आप भावुक हो रहे हैं,
बाद की बाद में,
देखेंगे,
रिश्ता तो वैसे भी,
आप दोनों से ही जुड़ा था,
आपके बेटे से कहाँ?
अपनापन,
समझौता,
जो भी नाम दे दें।

Tuesday 18 October 2016

सम्प्रेषण

आँखों की जुबां होती है,
यह तो सब कहते हैं,
पर जुबां तो,
जर्रे - जर्रे की होती है।
अगर,
नेत्र बन्द कर लिए जाएँ,
तब भी,
एहसास हो जाता है,
वह सब......
जो देखकर या सुनकर होता…
हवा, पानी,आसमान,मिट्टी,
इन सब में,
न जाने कैसे,
घुल जाती हैं,
भावनाएं,
जो पहुँच जाती हैं,
मन - मष्तिष्क तक.....
तभी तो,
महसूस हो जाता है,
वह भी,
जो अदृश्य अश्रव्य है।

हमलोग

कभी - कभी,
लगता है…
कि ये दुनिया,
कितनी सुन्दर है,
पर फिर कभी,
लगता है,
इसके विपरीत।
आखिर,
हमलोग ही तो हैं,
इसके लिए ज़िम्मेदार।
ईश्वर कह लें,
या कोई शक्ति,
एक नया शब्द,
गॉड पार्टिकल भी है,
सरल शब्दों में कहें तो प्रकृति,
इनमें से कुछ भी,
ने तो,
वाकई बनाया,
सब कुछ,
बहुत सुन्दर।
और हमें भी तो,
उसी ने,
बनाया है,
कहाँ था उसे भी अंदाज़ा,
हमारी अथाह,
स्वार्थपरता का,
जिसमें आकण्ठ डूबकर,
काटने लगे हम,
उसी डाल को,
जिस पर बैठे थे।
आखिर,
हम क्यों नहीं कर पाते,
इस सुन्दर दुनिया की कद्र,
क्यों चढ़ जाता है,
आँखों पर टिन का चश्मा,
कहाँ से भर जाता है,
हमारे,
हृदयों में मैल?
क्यों हमारी दुनिया,
सीमित हो जाती है,
बस अपने ही,
इर्द - गिर्द।
छोटा ही,
होता जाता है,
यह दायरा,
सिमट जाते हैं,
निज शरीर तक,
जिसमें आत्मा जैसी,
अनावश्यक वस्तु का,
कोई वजूद नहीं होता,
बनाने लगते हैं,
रिश्तों को सीढ़ी।
न जाने क्यों,
अपनों की,
लाशों पर,
खड़े होकर,
ऊँचा दिखना चाहते हैं?
दुर्लभ होती जा रही है,
निश्छलता,
ईमानदारी।
कोसों दूर जा रहे हैं,
अच्छाइयों से हम।
दूरी जितनी ही,
बढ़ती जा रही है....
हम लोग खुश हो रहे हैं,
कह रहे हैं,
हम आगे बढ़ रहे हैं

Monday 3 October 2016

कठोर नियंत्रण

आ ही जाता है,
आखिर,
मन को मारकर जीना भी।
मन तो चाहता है,
आकाश में उड़ना।
अब मन के चाहने से,
उड़ा तो नहीं जाता न।
तो मन को,
पहले पहल,
बहलाना - फुसलाना,
समझाना - बुझाना,
और,
अधिक मचलने पर,
मारना ही पड़ता है।
इस मन की तो,
रोज़ ही,
एक नई चाहत,
सामने आती है।
बात चाहत तक ही रहे,
तो फिर भी सम्भल जाए,
यहाँ तो मन है कि,
जिद ठान लेता है।
कहाँ तक पूरा करे कोई,
इस जिद्दी मन की,
ख्वाहिशों को,
कोई मनाए भी,
तो कैसे उसे?
पलट कर सवाल करता है -
पूछता है -
क्यों मारा मुझे इतनी बार,
कि मेरा अस्तित्व ही मिटने लगा ?
ठीक है,
मेरी कुछ चाहतें,
असंभव होती हैं,
पर सारी तो नहीं ?
हर बार,
मुझे ही क्यों,
पीछे धकेल दिया ?
कभी दबाकर,
कभी कुचलकर,
तो कभी मसलकर,
और तो और,
कागज़ की तरह मोड़कर,
दबा दिया डायरी में,
और,
खिसका दिया,
तकिये के नीचे।
मुड़कर और दबकर तो,
कागज़ में भी,
पड़ जाते हैं निशान,
पड़ने लगती है,
दरार भी।
फिर कुछ दिनों बाद,
बदल जाता है,
क्रमशः वह,
टुकड़ों और चिंदियों में,
फिर,
क्या होता होगा मेरा,
सोचा है कभी ?
हर बार,
मेरी तरफ से,
मुँह मोड़कर,
महान बनने की,
कोशिश की है, तुमने।
इन तर्कों से,
हैरान - परेशान,
आहत होकर भी,
कैसे समझाए कोई,
कि कितनी मजबूरी,
मुश्किल और,
कठिनाई में कोई,
रोक लेता है,
आंसुओं को गले में,
और मुस्कान को पीस देता है,
दांतों से,
ताकि पहुँच ही न सके,
होठों तक।
कितने दिन - रात,
की तपस्या के पश्चात,
सीख पाता है,
मन को मारकर जीना।

Wednesday 28 September 2016

दस्तख़त

हाँ.......
ले लो मेरे हस्ताक्षर,
और ऊपर....
विस्तार से,
लिख लो,
पूरा ब्यौरा।
पूर्णतः स्पष्ट रहें,
नियम व् शर्तें भी।
कर लो अपनी,
पूरी तस्सल्ली।
ताकि,
मैं मुकर न जाऊँ,
कल को।
कितनी बुद्धू हूँ,
मैं भी,
सोचती थी .......
विश्वास से बड़ा,
कोई मसौदा नहीं,
दोस्ती से बड़ा,
कोई करारनामा नहीं।
हा हा,
कितनी पागल हूँ,
मैं भी,
ऊल - जुलूल बातों को,
भरे बैठी हूँ,
दिलो - दिमाग,
और आदतों में।
अच्छा ही किया,
तुमने........
जो सिखा दिया मुझे,
कि,
कभी न करना,
किसी पर भरोसा,
चाहे उसने,
तुम्हारा साथ,
अब तक निभाया हो,
न सुन पाया हो,
तुम्हारे विरुद्ध,
एक शब्द भी,
तब भी,
हाँ तब भी।
पर एक बात,
जान लो,
तुम भी,
आज मुझसे,
कि जहाँ,
दस्तख़त आ जाता है,
वहाँ से,
दोस्ती खिसक लेती है।

Tuesday 13 September 2016

जान - बूझकर

जानबूझकर,
कर ली हो,
जिन्होंने,
अंधेरों से दोस्ती,
उन्हें कोई,
दर्पण कैसे,
दिखलाए।
आँखों को,
बन्द कर,
अंधेरों में घिरकर,
आख़िरकार,
रास्ते बन्द ही तो,
होते हैं।
जो डर गए,
राह बनाने के,
श्रम से,
उन्हें कोई,
राह कैसे,
दिखलाए।
अपने ही,
भीतर का अँधेरा,
फैल जाता है,
बाहर भी।
धीरे - धीरे बढ़ते,
भीतरी अंधकार का प्रभाव,
बढ़ जाता है,
कुछ इस कदर,
कि प्रकाश से,
स्वयं ही,
बढ़ने लगती है ,
दूरी।
इस तरह,
पुतलियों को भी,
आदत हो जाती है,
अंधकार की।
सभी इन्द्रियाँ,
हो जाती हैं,
अंधकार के अधीन।
प्रकाश का जिक्र भी,
होने लगता है,
असह्य।
बन जाए,
कोई,
स्वेच्छा से,
अंधेरों का गुलाम,
तो उसे,
नन्हें से,
दीप के साहस,
और,
अथाह रश्मि के स्रोत -
सूरज,
की गाथा,
कोई कैसे सुनाए।

परिचय के पश्चात

परिचय से पूर्व,
देखा था,
बस तुम्हारा चेहरा।
उस समय,
तुम्हारा चेहरा ही था,
तुम्हारा सम्पूर्ण वजूद,
मेरे लिए।
उसकी कोमलता,
रुक्षता,
बनाती थी,
उसे
भावपूर्ण या भावहीन।
वार्तालाप आरम्भ होने पर,
तुम्हारी आदतें,
विचार,
कौतूहल,
व्यवहार,
हँसी,
मुस्कान,
निश्छलता,
आदि भी,
बयाँ करने लगी तुम्हें।
इस बयाँ होने के क्रम में,
परिचय घनिष्ठ,
होता गया,
और चेहरा,
तुम्हारे असली वजूद के सामने,
पीछे छूटता गया।
अब तुम्हारा अर्थ,
था -
तुम्हारा चेहरा नहीं,
बल्कि,
तुम स्वयं।
परिचय परिवर्तित हो गयी थी,
प्रगाढ़ता में,
जब मुझे चोट लगने पर,
तुम्हारे मुँह से,
निकली थी,
कराह।
उस दिन हो गयी थी,
मित्रता की पुष्टि,
जब मैं रो रही थी,
और तुम्हारी आँखें भी,
छलछला उठी थीं।
अब तुम्हारा चेहरा,
मेरे लिए,
बन चुका है,
खुली किताब,
जिसे पढ़ती हूँ,
हर पल।
यहाँ तक कि,
तुम्हारी अनुपस्थिति में भी।
कोई अंतर नहीं पड़ता,
अब कुछ भी,
तुम्हारे,
कहने या न कहने से,
क्योंकि,
पढ़ती ही रहती हूँ,
हर पल,
तुम्हारे चेहरे और,
आँखों की भाषा।

Sunday 11 September 2016

मासूम आँखें

तपती हुई गर्मी से,
जलती धरती,
मौसम की पहली बारिश की बूंदों से,
महक उठी है।
झमाझम की ध्वनि,
मधुर संगीतमय - वातावरण,
निर्मित कर रही है।
नेत्रों को भी मिल गयी है,
शीतलता।
फाइलों में उलझी आँखें,
खिड़की से बाहर,
देखने लगी हैं।
मन मयूर भी,
नाच उठा है,
बगीचे में,
नाच रहे मोर के साथ।
रास्ते पर चल रहे हैं,
इक्के - दुक्के लोग,
कुछ छाता लेकर,
कुछ यूँ ही भींगते।
बीस साल पहले,
ऐसी ही बारिश थी,
उस दिन भी जब,
पहली बार,
जाना हुआ था,
उसके घर।
संयोगवश
पहन रखी थी,
उस दिन,
उसी के द्वारा,
प्रथम उपहारस्वरूप,
दी गयी -
प्योर सिल्क की,
हल्की गुलाबी साड़ी।
झमाझम बारिश,
ऊपर से,
प्रियतम का साथ,
मन बल्लियों उछल रहा था,
साड़ी खराब होने की चिंता भी,
मन के किसी कोने में,
सिर उठाने से,
बाज नहीं आ रही थी।
उसके घर पहुंचते ही,
बोल पड़ी थी -
मुझे कोई भी कपडा दे दो,
जल्दी से,
इस साड़ी को सुखा दूँ,
कल ड्रॉय क्लीनिंग के लिए,
दे दूंगी।
जबाब मिला था -
तुम्हें साड़ी की पड़ी है,
मुझे चिंता है,
तुम्हें जुकाम न हो।
झट अलमारी से,
कुर्ता - पाजामा निकाल,
उसे पकड़ाया,
और चाय बनाने,
किचेन में चला गया था ।
मन की बात दुआ बनकर,
जुबान पर आ गयी थी
  - काश!
ऐसा ही रहे ये हमेशा।
मीठी यादों में खोई,
कुर्सी से उठी,
बाहर निकली।
पैदल ही चल पड़ी,
उसके दफ्तर की ओर।
दो किलोमीटर की दूरी,
मुस्कुराती,
भींगती हुई,
पानी में पाँव,
छपाछप करती,
मिनटों में,
तय कर ली उसने।
उसके दफ्तर की बिल्डिंग,
सामने देख,
बांछें खिल उठी,
तेज कदमों से,
लगभग दौड़ती,
पहुँच गयी थी सीधा,
उसके केबिन में।
रोकने की बहुत कोशिश की थी,
चपरासी ने,
पर अपनी धुन में मगन,
कहाँ सुन पाई थी,
वह कुछ भी।
फ़ाइल से नज़रें हटाते ही,
उसे सामने देख,
वह हक्का - बक्का,
रह गया था।
बदन से टपकती,
पानी की बूंदों,
और,
पैरों के कीचड़ से,
कालीन ख़राब हो रही थी।
उसने गुस्से से,
घूरकर देखा,
बदले में,
बड़ी अदा से,
मुस्कुराई थी,
इतरा कर बोली थी,
कुछ याद आया।
दाँत पीसते हुए,
कहने लगा -
ये क्या पागलपन है,
क्यों मेरी प्रतिष्ठा,
को मिट्टी में,
मिलाने चली हो?
दुगने नखरे से,
कह बैठी-
ये सब पहली बार तो,
नहीं कर रही मैं,
पहले तो,
कभी बुरा नहीं माना तुमने।
कम से कम,
अपनी बेशकीमती साड़ी,
का ही सोच लेती।
अपमान बोध से,
भरे मन से,
जुबां पर आ गया था -
काश !
दुआ कुबूल हुई होती।
सहमी सी,
बुझे मन से,
बाहर आ गयी थी।
उसी रास्ते,
लौट रही है।
थम गई है,
अब बारिश।
धीरे - धीरे,
बरसने लगी हैं आँखें।
हाँ!
वही आँखें,
जिनमें कभी,
आंसू न आने देने की कसमें,
खाई है,
उसी ने,
कई - कई बार,
जो आज स्वयं ज़िम्मेदार है,
इन आंसुओं के लिए।
पहुँच गई है
वापस अपने,
वर्किंग डेस्क पर,
उलझ गयी है,
फिर से फाइलों में,
आंसुओं से भरी,
धुंधली पड़ रही,
नज़र ।
अपनी भावनाएँ,
छुपा लेने,
अंग -प्रत्यंग पर,
सम्पूर्ण,
नियंत्रण की कोशिश में,
लगातार जूझ रही हैं मासूम आँखें।

Wednesday 7 September 2016

मित्र या शत्रु

नाराज़गी का खामियाज़ा,
भुगतते हैं,
दोनों ही।
अकेलापन भी,
सालता है,
दोनों ही को।
आज भी,
मेरी नाराज़गी,
कम तो नहीं हुई है।
बात बस इतनी सी है,
अकेलापन अब और,
सहा नहीं जाता,
न ही सही जाती,
जगहँसाई।
वैसे भी समझदारी,
अलगाव में नहीं,
अपितु,
मिलाप में है।
बहुत बार आया ख्याल,
गले लगकर,
रो लें दोनों जी भरकर।
मिटा लें,
सारे गिले - शिकवे।
मिट जाने दें अहम् को,
बह जाने दें,
आंसुओं के साथ वैर - भाव  को भी।
इन सबके लिए भी तो,
मुझे चाहिए होगा,
तुम्हारा सहयोग।
तुम्हारा साथ,
अहम् के साथ से,
बेहतर अवश्य है,
क्योंकि तुम्हारे साथ,
हंसने - मुस्कुराने के भी,
होते हैं अवसर।
सचमुच बहुत बार चाहा,
बतला दूँ,
मन का हाल।
खोल कर रख दूँ,
हृदय।
क्यों न कदम बढ़ाकर,
करूँ तुम्हारा,
पुनः स्वागत,
तुम्हारी उपेक्षा भाव,
की परवाह किये बिना।
आखिर किसी एक को तो,
करनी ही पड़ती है,
पहल।
दोनों जब लगा लें,
होठों पर ताले,
तो धीरे - धीरे,
संवादहीनता बना लेती है,
वर्चस्व,
जिसके नीचे दब जाता है,
अपनत्व।
खो जाता है,
अधिकार भाव,
कुन्द होने लगते हैं......
मन और मस्तिष्क भी।
सद्भाव का स्थान ले लेती है,
घृणा, द्वेष, वैर।
मन में भी,
लग जाते हैं जाले,
भर जाती है धूल भी,
बन्द घर के समान ही।
गलती का फैसला हो कैसे,
जब दोनों ही,
दब गए हों,
अहम् के बोझ से,
फैसले वैसे,
कभी नहीं होते,
आखिरी।
ये तो चलता रहता है,
हिसाब इस लोक से,
उस लोक तक,
अंतर बस इस बात से,
पड़ जाता है,
कि मामला मित्रता का था,
या शत्रुता का।

शिकायती नजरिया

ज़िन्दगी गुज़र जाती है जिनकी,
दूसरों की कमियाँ देखते,
अपनी कमियों की तरफ़,
तो आँखें बन्द ही,
रह जाती हैं,
आँखें बन्द होने तक।
उनके जुमलों की बानगी,
होती है,
कुछ यूँ-
वक्त ने कभी,
ठहरने का,
नाम तक नहीं लिया।
ये वक्त भी न,
पूछो मत इसकी तो.........
इतना दुष्ट है,
कि कभी मुझे,
जी भर,
साँस लेने का,
अवसर ही नहीं दिया इसने।
और ये मुई ज़िन्दगी,
इतनी छोटी सी है,
अपना बचपन,
ठीक से,
जिया भी नहीं था,
कि कन्धों पर ज़िम्मेदारियाँ,
आने लगीं।
अब और किसी ने तो,
कुछ करना ही नहीं था,
सारा भार मेरे ऊपर।
कंधे झुक गए,
बाल होने लगे सफेद,
आँखों पर लग गया,
मोटे फ्रेम का चश्मा,
एक - एक कर,
टूटने लगे दाँत,
आ पहुंचा,
सीधे बुढ़ापा।
साली जवानी ने तो,
दस्तक ही,
नहीं दी।
देती भी कैसे?
इसे तो जाना था,
उन लोगों के पास,
जो मेरी ही कमाई पर,
तर माल उड़ा रहे थे।
आराम कब किया मैंने,
खटते - खटते,
ज़िन्दगी तबाह हो गयी,
मज़ाल है,
जो कभी,
किसी ने,
मुझे पकड़ाया हो,
पानी से भरा गिलास?
यकीन नहीं आपको मेरी बातों का?
आपके मानने,
न मानने से,
क्या होता है?
बहुत देख रखे हैं,
आप जैसे।
दूसरे के फटे में,
हाथ डालकर हँसनेवाले।
अब जाइये,
यहाँ से,
मेरे पास इतना वक्त नहीं,
कि आपका भाषण सुनूँ।
चले आते हैं,
कहाँ - कहाँ से मुँह उठाये।
इन दुनियावालों का तो,
सत्यानाश हो,
दोगली है ये दुनियाँ,
और,
दोमुँहा साँप हैं,
दुनियाँ वाले।

Friday 2 September 2016

चीज़ नहीं है वह

आंसू बहना चाह रहे थे,
पर,
गले में ही कहीं,
फँस चुके थे।
हाँ!
तभी तो,
आवाज़ भी बंध सी गयी थी।
चीखना चाह रही थी,
करे क्या?
आवाज़ तो,
उन्ही आंसुओं के,
वाष्पकणों के बीच,
कहीं उलझ कर रह गयी थी।
हाँ!
उसने भी सुन लिया था,
अभी - अभी,
बस थोड़ी देर पहले,
सुनाया गया फैसला।
हाँ वही,
जिसे न्याय कहते हैं।
इन तथाकथित,
न्याय के रक्षकों ने,
न्याय का बीड़ा तो उठाया,
पर.........
बीड़ा उठाने और,
निभा पाने में,
बड़ा अंतर होता है।
निभाने हेतु ,
संवेदना,
बहुत - बहुत,
जरूरी है।
प्रकृति संवेदना देकर,
भेजती अवश्य है,
हर किसी को,
जिसकी आवश्यकता,
संभ्रांत बनने की,
दुरूह प्रक्रिया में,
घटती जाती है।
कोई क्या - क्या संभाले आखिर?
घर और दफ़्तर को सजाने के क्रम में,
अनावश्यक वस्तुएँ,
तो हटानी ही पड़ती हैं।
संवेदना, भावना, विचार,
इंसानियत, नैतिक मूल्य,
न जाने क्या - क्या ?
यहाँ तक कि,
वह जो ज़मीर नाम का,
एक फालतू सा शब्द है,
जिसका निर्माण,
न जाने किस सिरफिरे ने किया था,
वह शब्द भी।
आवश्यक और अनावश्यक में,
श्रेणीबद्ध होकर ही,
रह जाती हैं,
सारी चीज़ें।
चीज़..........
चीज़,
हाँ
चीज़ ही तो।
अंततः
चीज़ और मूल्य,
के बीच ही तो,
सदा चलता है,
सारा व्यापार।
और औरत,
उसकी तो नियति ही,
यही बनाकर रख दी गयी।
उसकी इच्छा - अनिच्छा का,
प्रश्न ही कहाँ था?
चीज़ों की भी,
कभी कोई इच्छा होती है?
ऊपर से चीज़ यदि,
उपभोग की हो तो,
उफ्फ्फ.......
कितनी बार भूल जाना चाहा था,
उस समूची पीड़ा को,
जिसने उसके तन - मन,
और आत्मा के,
इतने टुकड़े कर दिये थे कि,
प्रतिदिन जोड़ने का प्रयास भी,
विफल ही रहा है।
आज भी इन टुकड़ों को,
समेटती हुई,
सोच रही है.....
इस निर्णय ने,
ओखली में डाल,
कूट दिया है,
उन टुकड़ों को।
और कितनी बार,
बतलायेंगे,
जतलायेंगे ये,
सब के सब,
औरत की,
वही एकमात्र नियति,
जिसका समर्थन,
कितनी - कितनी बार,
कभी घुमाकर,
तो कभी,
सीधे,
तर्कों - कुतर्कों,
यहाँ तक कि,
क़ानूनी पोथियों में भी,
किया गया है।
चीज़ पर जिसने कब्ज़ा किया,
चीज़ उसकी।
चीज़ की,
पसन्द - नापसंद,
प्रेम - घृणा,
ख़ुशी - उदासी,
कहाँ आड़े आती है?
पौराणिक कथाएँ भी तो,
ऐसे ही प्रसंगों से अटी पड़ी हैं,
देवयानी के,
ऋषि पिता ने,
ययाति से उसके विवाह का निर्णय,
सिर्फ इसलिये किया था,
कि ययाति ने उसका,
स्पर्श किया था।
जुटातें रहें ये प्रमाण,
देते रहें कुतर्क,
वह ऐसे निर्णय को,
शिरोधार्य नहीं करेगी।
चुनोती देती है आज,
ज्ञानियों, न्यायविदों और,
शास्त्रज्ञों को,
क्योंकि,
स्वयं भलीभाँति,
अवगत है,
कि चीज़ नहीं है वह।

Wednesday 31 August 2016

जज़्बात

जज़्बात कहाँ समझे जाते हैं,
इसकी तो त्रासदी ही,
यही है।
समझाने की कोशिश,
की जाती है,
बार-बार।
हर बार,
इस उम्मीद के साथ,
कि शायद इस बार,
समझ लिया जायेगा उसे।
उम्मीद की अधिकता में,
यह भी सोच लिया जाता है,
कि ठीक से समझ लिया जायेगा।
पानी फिरता बारम्बार,
इन उम्मीदों पर,
इन कोशिशों का परिणाम,
प्रायः शून्य ही होता है।
जज़्बाती लोगों का हश्र भी,
होता है,
कुछ - कुछ,
ऐसा ही।
वे पागल, जिद्दी, बेवकूफ,
और कभी - कभी,
सनकी करार दिए जाते हैं।

Friday 29 April 2016

न्याय का मंदिर

ये क्या सुन रही है वह?
ये है जज का निर्णय,
इसी निर्णय के लिए,
अब तक,
संघर्ष कर रही थी वह?
ऐसे होते हैं,
न्याय के देवता?
इतनी बड़ी पदवी…….
न्यायाधीश !
और सोच?
इतनी संकीर्ण?
क्या ऐसा ही लिखा है,
कानून की किताबों में?
और यदि हाँ…….
तो वो पृष्ठ पलटकर,
दिखाएँ मुझे?
वो क्रोध से काँप रही थी,
पसीने से तर - बतर थी,
न्यायाधीश की कुर्सी की तरफ,
जिस तेजी से बढ़ी थी,
लगा था,
उसका खून पी जायेगी,
चार - चार लोगों ने,
पकड़ रखा था उसे,
वह खींचती चली जा रही थी,
उन चारों को अपने साथ।
निराशा और क्रोध के आवेग ने,
उसके शरीर की,
तमाम कोशिकाओं को,
सक्रिय कर दिया था,
क्रोधाग्नि की लपटें,
आँखों के रास्ते,
बाहर प्रकट हो रही थी।
कोशिकाओं की,
अति सक्रियता से,
उपजी ताकत,
चार लोगों को,
अपने साथ घसीट रही थी।
उसकी जलती आँखों से,
घबराकर न्यायाधीश,
अपनी कुर्सी से उठ,
तेजी से भागा,
सीधा गाड़ी में जा बैठा,
और ड्राईवर को,
गाड़ी चलाने का,
इशारा किया।
गाड़ी के पीछे,
थोड़ी दूर तक,
छटपटाती,
चिल्लाती हुई,
पूरी ताकत से,
स्वयं को,
लोगों की पकड़ से,
छुड़ाती हुई,
चलती गयी थी वह।
अत्यन्त ऊँची आवाज में,
चीख कर बोली थी -
“अरे कमीने,
तू जज कहता है,
खुद को,
चुल्लू भर पानी में,
डूब मर मुए।
उस नीच से मुझे,
शादी ही करनी होती,
तो पिछले पाँच सालों से,
इस न्याय - मंदिर के दरवाजे पे,
अपना मत्था टेके,
क्यों खड़ी थी?
न्याय का मतलब,
पता नहीं,
और,
चले हैं,
न्याय करने।
तभी उसकी नज़र,
उस पर पड़ी,
जिसने उसके जीवन में,
अँधेरा,अपमान,बदनामी,
उपेक्षा के इतने दाग दिए थे,
कि पलक झपकते ही,
उसके जीवन से,
अच्छा कहा जाने योग्य सबकुछ,
छिन गया था।
एक दिन पहले तक,
पूरा गाँव उस पर गर्व करता था,
आँगन में नीम के पेड़ के नीचे,
गाँव भर की औरतें इकट्ठी होतीं,
कोई उससे लिखना - पढ़ना सीखती,
तो कोई उसकी माँ से,
अचार, पापड़ और,
तरह - तरह के व्यंजन की विधियाँ सीखती।
जिस किसी को भी,
हिसाब जोड़ने में,
मदद की जरूरत होती,
उसके पास आती,
माँ - बेटी की खूब,
सराहना होती,
औरतें मुस्कुराकर कहतीं -
इनके बगैर तो,
एक भी काम नहीं हो पाता।
इस घटना के बाद,
सबने मुंह फेर लिया था,
जिस किसी से भी,
नज़र मिलाने की,
कोशिश करती ..
मुँह घुमाकर चल देतीं,
वो समझाना चाहती थी,
कि उसकी कोई गलती नहीं,
पर कैसे?
गाँव के लोगों ने,
समाज - बहिष्कृत करने की,
माँग रखी,
पंचायत ने,
गाँव वालों का समर्थन किया,
उसे पूरा विश्वास था,
जिस दिन उसे,
कोर्ट से न्याय मिलेगा,
सारे दाग धुल जाएंगे,
फिर से वो पहले जैसी,
ज़िन्दगी जी पायेगी।
वही नीच,
जिसने उसे कहीं का नहीं छोड़ा था,
और जिससे,
शादी कर लेने का फैसला,
अभी थोड़ी देर पहले,
जज ने सुनाया था -
सामने से चला आ रहा था,
कोर्ट के फैसले की ख़ुशी,
उससे छुपाये नहीं छुप रही थी,
उसे यकीन था,
थोड़ी हील -हुज्जत के बाद,
वह उससे शादी के लिए राजी हो जाएगी,
वैसे भी इतनी बदनामी के बाद,
कोई और लड़का उससे,
शादी को क्यों तैयार होता?
शेरनी की तरह,
गुर्राती हुई वह,
उसकी ओर,
झपटी थी,
घबराकर,
सर पर पाँव रखकर,
भागा था।
वह चिल्लाकर बोली थी -
जैसा तू है,
वैसा ही ये कुत्ता जज है,
तेरी और उसकी,
मानसिकता में,
कोई अंतर नहीं।
तूने क्या समझा था -
पैसे से कुत्ते जज का,
मुँह भर के,
तू बच जायेगा?
वो कमीना,
समझौता करवा कर -
मुझे तेरी बीबी बनने पर,
मजबूर करेगा,
आक्…….थू…….
थूकती हूँ मैं,
ऐसे जज पर,
और,
उसके ऐसे फैसले पर,
मुँह छुपाने की जरूरत,
मुझे नहीं,
तुझे,
कमीने जज को,
और,
उन सबको है,
जिनकी ऐसी सोच है….,
जो बलात्कारी से विवाह करवा कर,
न्याय की स्थापना करते हैं।
अरे मैं जज होती,
तो इतनी देर,
तू फाँसी पर,
झूल चुका होता।
इस कोर्ट में,
बड़ी उम्मीदें लेकर आई थी,
सोचती थी,
ये न्याय का मन्दिर है,
यहाँ पीड़ितों को,
न्याय मिलता है,
आज समझ रही हूँ,
अगर,
एक भी,
पीड़िता को,
न्याय मिला होता,
तो आज मैं,
पीड़िता ही नहीं होती,
अपराधियों को दण्ड मिला होता,
तो कोई बलात्कार करने की,
हिम्मत ही नहीं करता।
आज समझ पाई हूँ -
क्यों लड़कियाँ,
या तो खुद कुएँ में,
छलाँग लगा देती हैं,
या उस पापी को,
हँसिया से काट देती हैं,
इस कोर्ट - कचहरी में,
आकर,
और बेइज्जत होने के अलावा,
क्या मिलता है?
मुझे लगा था -
आत्महत्या करना,
गलत है,
कानून हाथ में लेकर,
उसका खून करना भी,
गलत है,
कोर्ट - कचहरी जाकर,
न्याय के लिए,
दरवाजा खटखटाना चाहिए,
मिल गया,
न्याय,
न्याय मिल गया -
हा हा हा हा….
जज तेरी बुद्धि को,
मैं कोसती हूँ,
सौ - सौ लाँछन देती  हूँ।
तेरे न्याय को मैं,
हरगिज़ नहीं मानती,
लेकिन मेरे न्याय से,
तुझे कौन बचाएगा?
आज से अपनी खैर मनाना,
शुरु कर दे।
अब इस न्याय के मन्दिर की,
असलियत जान गयी हूँ,
अब नहीं डरूँगी,
किसी से,
अरे,
खूनी, बलात्कारी और चोरों को,
तुम लोगों ने ही,
पनाह दी है,
ये ही तो हैं,
तुम्हारी तिजोरियाँ,
भरने वाले।
मैं तो नहीं भर पाऊँगी,
तुम्हारी तिजोरियाँ।
पकड़ लेना मुझे,
लटका देना फाँसी पर,
एक को मारकर भी फाँसी,
और सौ को मारकर भी,
उन सबका कत्ल करूंगी,
जो तेरी जैसी सोच वाले हैं।
हा हा हा हा…
जज साहब,
तूने तो रास्ता खोल दिया -
किसी छोरी से शादी करना चाहो,
वो राजी न हो,
तो उसका बलात्कार करो,
जज साहब आगे,
बात पक्की करा देंगे।
लोग कहने लगे -
सदमे से पागल हो गयी है,
पागलखाने ले चलो।
- अरे नालायकों,
पागल तो तुमलोग हो,
जो बलात्कारी और,
उसे पनाह देने वाले जज को,
जो इंसानियत का मतलब नहीं समझता,
कुछ नहीं कहते,
मुझे पागल कहते हो।
मैं उस जज के फैसले को,
नहीं मानती,
चाहे मुझे,
पागलखाने भेजो,
या जेलखाने।
तुम लोगों की नज़र में,
मैं पागल हूँ,
क्योंकि बलात्कार का शिकार होकर,
खुद को दोषी,
नहीं माना,
आत्महत्या नहीं की,
कानून हाथ में लेकर,
उसका खून नहीं किया,
समाज - बहिष्कृत होकर,
मेरे माँ - बाप ने,
खुद ज़हर खाकर,
मुझे भी ज़हर नहीं दिया।
मैं ही नहीं,
मेरा पूरा परिवार पागल है,
जिसने इस न्याय - व्यवस्था पर भरोसा किया,
न्याय के इंतजार में,
एक - एक पल,
मर - मर कर काटा,
और आज,
जज के फैसले पर,
ऐतराज़ किया।
ले चलो,
मुझे,
मेरे परिवार को,
जेलखाने,
पागलखाने,
जहाँ ले जाना है,
पर हम नहीं छोड़ेंगे,
उस कुत्ते को,
और,
उसकी वकालत करने वाले कमीने जज को।