Friday 2 September 2016

चीज़ नहीं है वह

आंसू बहना चाह रहे थे,
पर,
गले में ही कहीं,
फँस चुके थे।
हाँ!
तभी तो,
आवाज़ भी बंध सी गयी थी।
चीखना चाह रही थी,
करे क्या?
आवाज़ तो,
उन्ही आंसुओं के,
वाष्पकणों के बीच,
कहीं उलझ कर रह गयी थी।
हाँ!
उसने भी सुन लिया था,
अभी - अभी,
बस थोड़ी देर पहले,
सुनाया गया फैसला।
हाँ वही,
जिसे न्याय कहते हैं।
इन तथाकथित,
न्याय के रक्षकों ने,
न्याय का बीड़ा तो उठाया,
पर.........
बीड़ा उठाने और,
निभा पाने में,
बड़ा अंतर होता है।
निभाने हेतु ,
संवेदना,
बहुत - बहुत,
जरूरी है।
प्रकृति संवेदना देकर,
भेजती अवश्य है,
हर किसी को,
जिसकी आवश्यकता,
संभ्रांत बनने की,
दुरूह प्रक्रिया में,
घटती जाती है।
कोई क्या - क्या संभाले आखिर?
घर और दफ़्तर को सजाने के क्रम में,
अनावश्यक वस्तुएँ,
तो हटानी ही पड़ती हैं।
संवेदना, भावना, विचार,
इंसानियत, नैतिक मूल्य,
न जाने क्या - क्या ?
यहाँ तक कि,
वह जो ज़मीर नाम का,
एक फालतू सा शब्द है,
जिसका निर्माण,
न जाने किस सिरफिरे ने किया था,
वह शब्द भी।
आवश्यक और अनावश्यक में,
श्रेणीबद्ध होकर ही,
रह जाती हैं,
सारी चीज़ें।
चीज़..........
चीज़,
हाँ
चीज़ ही तो।
अंततः
चीज़ और मूल्य,
के बीच ही तो,
सदा चलता है,
सारा व्यापार।
और औरत,
उसकी तो नियति ही,
यही बनाकर रख दी गयी।
उसकी इच्छा - अनिच्छा का,
प्रश्न ही कहाँ था?
चीज़ों की भी,
कभी कोई इच्छा होती है?
ऊपर से चीज़ यदि,
उपभोग की हो तो,
उफ्फ्फ.......
कितनी बार भूल जाना चाहा था,
उस समूची पीड़ा को,
जिसने उसके तन - मन,
और आत्मा के,
इतने टुकड़े कर दिये थे कि,
प्रतिदिन जोड़ने का प्रयास भी,
विफल ही रहा है।
आज भी इन टुकड़ों को,
समेटती हुई,
सोच रही है.....
इस निर्णय ने,
ओखली में डाल,
कूट दिया है,
उन टुकड़ों को।
और कितनी बार,
बतलायेंगे,
जतलायेंगे ये,
सब के सब,
औरत की,
वही एकमात्र नियति,
जिसका समर्थन,
कितनी - कितनी बार,
कभी घुमाकर,
तो कभी,
सीधे,
तर्कों - कुतर्कों,
यहाँ तक कि,
क़ानूनी पोथियों में भी,
किया गया है।
चीज़ पर जिसने कब्ज़ा किया,
चीज़ उसकी।
चीज़ की,
पसन्द - नापसंद,
प्रेम - घृणा,
ख़ुशी - उदासी,
कहाँ आड़े आती है?
पौराणिक कथाएँ भी तो,
ऐसे ही प्रसंगों से अटी पड़ी हैं,
देवयानी के,
ऋषि पिता ने,
ययाति से उसके विवाह का निर्णय,
सिर्फ इसलिये किया था,
कि ययाति ने उसका,
स्पर्श किया था।
जुटातें रहें ये प्रमाण,
देते रहें कुतर्क,
वह ऐसे निर्णय को,
शिरोधार्य नहीं करेगी।
चुनोती देती है आज,
ज्ञानियों, न्यायविदों और,
शास्त्रज्ञों को,
क्योंकि,
स्वयं भलीभाँति,
अवगत है,
कि चीज़ नहीं है वह।

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