ज़िन्दगी गुज़र जाती है जिनकी,
दूसरों की कमियाँ देखते,
अपनी कमियों की तरफ़,
तो आँखें बन्द ही,
रह जाती हैं,
आँखें बन्द होने तक।
उनके जुमलों की बानगी,
होती है,
कुछ यूँ-
वक्त ने कभी,
ठहरने का,
नाम तक नहीं लिया।
ये वक्त भी न,
पूछो मत इसकी तो.........
इतना दुष्ट है,
कि कभी मुझे,
जी भर,
साँस लेने का,
अवसर ही नहीं दिया इसने।
और ये मुई ज़िन्दगी,
इतनी छोटी सी है,
अपना बचपन,
ठीक से,
जिया भी नहीं था,
कि कन्धों पर ज़िम्मेदारियाँ,
आने लगीं।
अब और किसी ने तो,
कुछ करना ही नहीं था,
सारा भार मेरे ऊपर।
कंधे झुक गए,
बाल होने लगे सफेद,
आँखों पर लग गया,
मोटे फ्रेम का चश्मा,
एक - एक कर,
टूटने लगे दाँत,
आ पहुंचा,
सीधे बुढ़ापा।
साली जवानी ने तो,
दस्तक ही,
नहीं दी।
देती भी कैसे?
इसे तो जाना था,
उन लोगों के पास,
जो मेरी ही कमाई पर,
तर माल उड़ा रहे थे।
आराम कब किया मैंने,
खटते - खटते,
ज़िन्दगी तबाह हो गयी,
मज़ाल है,
जो कभी,
किसी ने,
मुझे पकड़ाया हो,
पानी से भरा गिलास?
यकीन नहीं आपको मेरी बातों का?
आपके मानने,
न मानने से,
क्या होता है?
बहुत देख रखे हैं,
आप जैसे।
दूसरे के फटे में,
हाथ डालकर हँसनेवाले।
अब जाइये,
यहाँ से,
मेरे पास इतना वक्त नहीं,
कि आपका भाषण सुनूँ।
चले आते हैं,
कहाँ - कहाँ से मुँह उठाये।
इन दुनियावालों का तो,
सत्यानाश हो,
दोगली है ये दुनियाँ,
और,
दोमुँहा साँप हैं,
दुनियाँ वाले।
Wednesday 7 September 2016
शिकायती नजरिया
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment