तपती हुई गर्मी से,
जलती धरती,
मौसम की पहली बारिश की बूंदों से,
महक उठी है।
झमाझम की ध्वनि,
मधुर संगीतमय - वातावरण,
निर्मित कर रही है।
नेत्रों को भी मिल गयी है,
शीतलता।
फाइलों में उलझी आँखें,
खिड़की से बाहर,
देखने लगी हैं।
मन मयूर भी,
नाच उठा है,
बगीचे में,
नाच रहे मोर के साथ।
रास्ते पर चल रहे हैं,
इक्के - दुक्के लोग,
कुछ छाता लेकर,
कुछ यूँ ही भींगते।
बीस साल पहले,
ऐसी ही बारिश थी,
उस दिन भी जब,
पहली बार,
जाना हुआ था,
उसके घर।
संयोगवश
पहन रखी थी,
उस दिन,
उसी के द्वारा,
प्रथम उपहारस्वरूप,
दी गयी -
प्योर सिल्क की,
हल्की गुलाबी साड़ी।
झमाझम बारिश,
ऊपर से,
प्रियतम का साथ,
मन बल्लियों उछल रहा था,
साड़ी खराब होने की चिंता भी,
मन के किसी कोने में,
सिर उठाने से,
बाज नहीं आ रही थी।
उसके घर पहुंचते ही,
बोल पड़ी थी -
मुझे कोई भी कपडा दे दो,
जल्दी से,
इस साड़ी को सुखा दूँ,
कल ड्रॉय क्लीनिंग के लिए,
दे दूंगी।
जबाब मिला था -
तुम्हें साड़ी की पड़ी है,
मुझे चिंता है,
तुम्हें जुकाम न हो।
झट अलमारी से,
कुर्ता - पाजामा निकाल,
उसे पकड़ाया,
और चाय बनाने,
किचेन में चला गया था ।
मन की बात दुआ बनकर,
जुबान पर आ गयी थी
- काश!
ऐसा ही रहे ये हमेशा।
मीठी यादों में खोई,
कुर्सी से उठी,
बाहर निकली।
पैदल ही चल पड़ी,
उसके दफ्तर की ओर।
दो किलोमीटर की दूरी,
मुस्कुराती,
भींगती हुई,
पानी में पाँव,
छपाछप करती,
मिनटों में,
तय कर ली उसने।
उसके दफ्तर की बिल्डिंग,
सामने देख,
बांछें खिल उठी,
तेज कदमों से,
लगभग दौड़ती,
पहुँच गयी थी सीधा,
उसके केबिन में।
रोकने की बहुत कोशिश की थी,
चपरासी ने,
पर अपनी धुन में मगन,
कहाँ सुन पाई थी,
वह कुछ भी।
फ़ाइल से नज़रें हटाते ही,
उसे सामने देख,
वह हक्का - बक्का,
रह गया था।
बदन से टपकती,
पानी की बूंदों,
और,
पैरों के कीचड़ से,
कालीन ख़राब हो रही थी।
उसने गुस्से से,
घूरकर देखा,
बदले में,
बड़ी अदा से,
मुस्कुराई थी,
इतरा कर बोली थी,
कुछ याद आया।
दाँत पीसते हुए,
कहने लगा -
ये क्या पागलपन है,
क्यों मेरी प्रतिष्ठा,
को मिट्टी में,
मिलाने चली हो?
दुगने नखरे से,
कह बैठी-
ये सब पहली बार तो,
नहीं कर रही मैं,
पहले तो,
कभी बुरा नहीं माना तुमने।
कम से कम,
अपनी बेशकीमती साड़ी,
का ही सोच लेती।
अपमान बोध से,
भरे मन से,
जुबां पर आ गया था -
काश !
दुआ कुबूल हुई होती।
सहमी सी,
बुझे मन से,
बाहर आ गयी थी।
उसी रास्ते,
लौट रही है।
थम गई है,
अब बारिश।
धीरे - धीरे,
बरसने लगी हैं आँखें।
हाँ!
वही आँखें,
जिनमें कभी,
आंसू न आने देने की कसमें,
खाई है,
उसी ने,
कई - कई बार,
जो आज स्वयं ज़िम्मेदार है,
इन आंसुओं के लिए।
पहुँच गई है
वापस अपने,
वर्किंग डेस्क पर,
उलझ गयी है,
फिर से फाइलों में,
आंसुओं से भरी,
धुंधली पड़ रही,
नज़र ।
अपनी भावनाएँ,
छुपा लेने,
अंग -प्रत्यंग पर,
सम्पूर्ण,
नियंत्रण की कोशिश में,
लगातार जूझ रही हैं मासूम आँखें।
Sunday 11 September 2016
मासूम आँखें
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