Wednesday 7 September 2016

मित्र या शत्रु

नाराज़गी का खामियाज़ा,
भुगतते हैं,
दोनों ही।
अकेलापन भी,
सालता है,
दोनों ही को।
आज भी,
मेरी नाराज़गी,
कम तो नहीं हुई है।
बात बस इतनी सी है,
अकेलापन अब और,
सहा नहीं जाता,
न ही सही जाती,
जगहँसाई।
वैसे भी समझदारी,
अलगाव में नहीं,
अपितु,
मिलाप में है।
बहुत बार आया ख्याल,
गले लगकर,
रो लें दोनों जी भरकर।
मिटा लें,
सारे गिले - शिकवे।
मिट जाने दें अहम् को,
बह जाने दें,
आंसुओं के साथ वैर - भाव  को भी।
इन सबके लिए भी तो,
मुझे चाहिए होगा,
तुम्हारा सहयोग।
तुम्हारा साथ,
अहम् के साथ से,
बेहतर अवश्य है,
क्योंकि तुम्हारे साथ,
हंसने - मुस्कुराने के भी,
होते हैं अवसर।
सचमुच बहुत बार चाहा,
बतला दूँ,
मन का हाल।
खोल कर रख दूँ,
हृदय।
क्यों न कदम बढ़ाकर,
करूँ तुम्हारा,
पुनः स्वागत,
तुम्हारी उपेक्षा भाव,
की परवाह किये बिना।
आखिर किसी एक को तो,
करनी ही पड़ती है,
पहल।
दोनों जब लगा लें,
होठों पर ताले,
तो धीरे - धीरे,
संवादहीनता बना लेती है,
वर्चस्व,
जिसके नीचे दब जाता है,
अपनत्व।
खो जाता है,
अधिकार भाव,
कुन्द होने लगते हैं......
मन और मस्तिष्क भी।
सद्भाव का स्थान ले लेती है,
घृणा, द्वेष, वैर।
मन में भी,
लग जाते हैं जाले,
भर जाती है धूल भी,
बन्द घर के समान ही।
गलती का फैसला हो कैसे,
जब दोनों ही,
दब गए हों,
अहम् के बोझ से,
फैसले वैसे,
कभी नहीं होते,
आखिरी।
ये तो चलता रहता है,
हिसाब इस लोक से,
उस लोक तक,
अंतर बस इस बात से,
पड़ जाता है,
कि मामला मित्रता का था,
या शत्रुता का।

No comments:

Post a Comment