Saturday 31 December 2022

उम्मीद न कर

 बेवकूफ़ों से समझदारी की उम्मीद न कर

कंजूसों से दिलदारी की उम्मीद न कर

अपने अपने रास्ते निकल लेंगे सब

वक्त से पहले तैयारी की उम्मीद न कर

किसी को देख नाकभौं सिकोड़ना तौबा

नफ़रत देकर यारी की उम्मीद न कर

बेढंगे भोले भाले तुम खूब मिले हो

परजीवियों से खुद्दारी की उम्मीद न कर

अक्ल की छोटी कटोरी लबालब हुई

हल्का देकर भारी की उम्मीद न कर

दुहराने से झूठ सच नहीं होगा

चोरों से पहरेदारी की उम्मीद न कर

आँखों की भाषा पढ़ना आ जाए बस

मासूम से होशियारी की उम्मीद न कर

कठिन पल कटेंगे हमें काटकर ही सही

होशो-हवास में खुमारी की उम्मीद न कर

वफ़ा की राह में अटकाएँगे रोड़े जरूर

उचक्कों से वफ़ादारी की उम्मीद न कर।



Friday 30 December 2022

आत्मनिर्भर स्त्री

 आत्मनिर्भर स्त्री


स्त्रियां आत्मनिर्भर

होने को

उठती रही हैं

बारंबार

और हरबार

एक भ्रम का

जाल देखा है उसने

अपने चारों ओर

हाँ ....

कितने संघर्षों

से गुजरकर

पढ़ पाई हैं

हजारों किताबें

लिखी भी हैं

सैकड़ों

ले चुकी हैं

बड़ी से बड़ी डिग्री

आसीन हुई हैं

बड़े-बड़े

पदों पर

लेकिन जब-जब

पूर्ण आत्मनिर्भर

होकर

उठाया है प्रश्न

इतिहास गवाह है

उसे मिली है

सिर काट लेने की धमकी,

चुनवा दिया गया है

दीवारों में

यहाँ तक कि

काट ली गई है

जिह्वा भी।


बचपन की सखियाँ

 बचपन की सखियाँ


तुम सबको

साथ रखा

यादों में

साँसों में

गुजरता रहा समय

बदलती रहीं

परिस्थितियां

आते रहे नए लोग

इन सबके

बीच से

गुजरते हुए

सहेजती रही

तुम्हारे चेहरे,

मुस्कान, आवाज

ढूंढती रही

तुम्हारा ठिकाना

जब जब गुजरी

उन गलियों से

जिनमें हुआ

करता था

तुम्हारा घर

बहुत बार

पूछा 

तुम सबका पता

लोगों से

आखिर

बचपन की

सहेलियां ही तो

मेरे जीवन की

पूँजी थी

कमा ले 

सकते हैं

हम सब आगे

बहुत कुछ

पर कमाया जो

बचपन में

तुम सबका साथ

उस कमाई को

संभाले रखी हूँ मैं

यादों के खजाने में

मेरी बचपन की 

प्यारी सखियाँ

मेरी सबसे बड़ी

थाती हैं

जिन्हें सहेज रखूँगी

यूँ ही

सदा के लिए

क्योंकि

नहीं लौटेगा

बचपन

दुबारा

पर सखियों

सँग जीती रहूँगी

अपना बचपन

झुर्री भरे चेहरे

और

सफेद बालों सँग भी।


भीड़ को चीरकर

 भीड़ को चीरकर


दर्द से

गुजरते हुए

सहनशीलता का

पाठ पढ़ते हुए

हुआ निर्माण

रोम रोम

देता है गवाही

कि आदत

पड़ गई है

दर्द सँग जीने की

आँखें हैं कि

फिर भी

रोती हैं

हर बार

दिल है कि

कचोटता है

हर बार

रोम-रोम को दर्द से

गुजरने की आदत

आँखों को

रोने की आदत

दिल को

कचोटने की

आदत

इन सबको

जानकर

पहचान कर

भीड़ को 

चीरकर

आगे बढ़ने की आदत।


16. रंगमंच


रंगमंच पर

आकर अवाक

मौन कलाकार

अपने जीवन को

ही 

मंच पर

जीता हुआ

लोगों की

वाहवाही से

कुछ छुपता हुआ

बचता हुआ

मैं ने कुछ भी

नहीं किया

अभिनय तो

बिल्कुल भी नहीं

बस अपने आप को

आपके सामने

रखा है

अभिनय तो

मैं करता हूँ

अपने जीवन में

अपने दुखों को

छुपाने हेतु

तब कोई नहीं

कहता

वाह! वाह!


छूटती है ट्रेन

 छूटती है ट्रेन


बहुत कुछ

छूट जाता है

पीछे

जब स्टेशन

से छूटती

है ट्रेन

डबडबा जाती हैं

आँखें

भीतर कुछ

टूट जाता है

जब स्टेशन से

छूटती है ट्रेन

जाने वाले

और छोड़ने वाले

छुपाने लगते हैं

अपनी नज़रें 

लाख छुपाकर भी

टकराती हैं

नजरें

मन में उमड़ता है

यादों का समंदर

जब स्टेशन से

छूटती है ट्रेन

अब के गए

क्या जाने

लौटेंगे कब

चिंता की

उभरती लकीरें

खो जाती हैं

पीछे भागते

दृश्यों में

जैसे एक पूरा जीवन

पीछे छूट जाता है

जब स्टेशन से

छूटती है ट्रेन


तुम विनम्र जो हो

 तुम विनम्र जो हो


ठोकर मिलेगी

खा लेना

दिल जलेगा

जला लेना

बूंद-बूंद

जल सँभालने

को अपना

दायित्व समझा

फिर भी

मिलेगी उपेक्षा

कोई बात नहीं

सह लेना

इस दुनिया को

जीवन देने

के लिए

तुम हो रहे कुर्बान

फिर भी

करने वाले

कर सकते हैं

अपमान

ये सब

होगा

सहना पड़ेगा

आखिर तुम

विनम्र जो ठहरे


Thursday 29 December 2022

पराक्रमी मच्छर

 पराक्रमी मच्छर

 

दोनों कुहनियों पर

काटने लगते हैं

एक साथ ही

कई-कई मच्छर

जलन और दर्द

का समुद्र

उमड़ता है मन में

उसे जितनी

गालियाँ आती है

दे डालता है

मच्छरों को

पर उन्हें मार

नहीं पाता

घर अटा पड़ा है

मच्छर निवारकों से

रैकेट चलाते हुए

टूटने लगी हैं

कुहनियां

कितनी बार लगी है

तेज करंट

कोई इन

पराक्रमी

मच्छरों का

इतिहास लिख

रहा है कि नहीं?


अम्माँ की साड़ियाँ

 अम्माँ की साड़ियाँ


अम्माँ की

साड़ियाँ

पड़ी हैं

अलमारी में

अब अम्माँ

सलवार कमीज

नाइटी

पहनती हैं

अब अम्माँ से

नहीं होती

कलफ

न इस्त्री

ये बाजार में

इस्त्री करने

वाले तो

जला डालते हैं

साड़ी

उन्हें नहीं पता न

इन साड़ियों के सूत सँग

अम्माँ की

कितनी यादें जुड़ी हैं

ड्राय क्लीनिंग

के नाम पर

कई साड़ियां

बदरंग हो

गईं

अम्माँ पहनना

चाहती हैं

साड़ियाँ

हम सब

देखना चाहते हैं उन्हें

नित नई-नई

डिज़ाइन की

साड़ियों में

पर अम्माँ

साड़ियों से

करती हैं प्रेम

बिल्कुल अपने

बच्चों की तरह

उनकी देखभाल में

कमी हो

ये उन्हें

बिल्कुल मंजूर नहीं


Tuesday 27 December 2022

प्रत्युतपन्नमति

 प्रत्युतपन्नमति


बनाना-संवारना

काटना-छांटना

ठीक है

पर नैचुरल तो

नैचुरल है

मैनर्स-एटिकेट्स

ठीक है

पर भोलापन

तो भोलापन है

प्रशिक्षण-अभ्यास

प्रतियोगिता

ठीक है

पर प्रत्युतपन्नमति

होना

निस्संदेह

सर्वोत्तम है।


साहित्य का जन्म

 साहित्य का जन्म


जब जब

पकी गेहूँ की बालियाँ

झूमती हैं हवा में

मेरे भीतर

जनमती है

एक सुंदर कविता

जब जब

आम की मंजरी

टपकती है

धरती पर

एक महाकाव्य

का श्री गणेश

होता है

जब जब 

पिकी की कूक 

वातावरण में

गूँजती है

पंचम सुर

लेता आकार

इसी प्रकृति से

उपजा है 

काव्य-सौंदर्य

छंद-लय

सुंदर उठान 

तार सप्तक की

यहीं पैदा हुई है

ग्रंथ लिखे

गए सारे

प्रकृति को

पढ़ने के

बाद ही।


सुंदरतम देश

 सुंदरतम देश


जब खेती करने से

नहीं भरता पेट

कैसे कहें

अपने देश को

कृषि

प्रधान देश

जब नहीं

पहुँच पा रही

मुनिया के हाथों तक

कलम

वह लिए घूम रही

चाय की ट्रे

कैसे लगाएँ

बेटी बचाओ

बेटी पढ़ाओ की टेर

मेरे चारों ओर शिक्षा,

ऊर्जा, जानकारी

और कौशल से लैस युवा

बेरोजगारी की

नदी में तैर रहे

न जाने कितनी

देर और

मार सकेंगे

हाथ-पाँव

कहीं रुक न जाएँ

उनकी साँसें

चिंता से मेरी

ऊपर की साँस

ऊपर

नीचे की नीचे

जहाँ अच्छी बातें

सिर्फ बोलने

के लिए हैं

अमल करने के लिए

सिर्फ क्लेश

वहाँ कैसे बचे

स्वाभिमान

आत्मसम्मान

पर्यावरण प्रदूषित

पर अंतर्मन ही

कहाँ रह सका शेष

जाने कैसा

होता जा रहा

अपना देश

कर्म प्रधान संस्कृति

आज व्याकुल

मन मलिन

उज्ज्वल वेश

लिपे-पुते चेहरे

लाल हरे केश

कहाँ हैं

संत-दरवेश

आओ बचा लें

मानवता, प्रेम

बचा लें

विश्व का

सुंदरतम देश


बदगुमानियां

 बदगुमानियां


वायदे तोड़ कर

खुश हुए

मुझे छोड़कर

दिन थे उनके

सुख के दिन थे

जेब भरी थी

सत्ता मुट्ठी में थी

आ गए न जाने कैसे

आज मेरे दरवाजे पर

हाथ जोड़कर

माफी माँगी

गलती न

दुहराने की

कसमें खाईं

भर आईं

आँखें मेरी

रो दिया दिल

खुश रहो

ये दुआ है मेरी

पर न होंगी

पहले जैसी

नजदीकियां अब

रोई हूँ

मैं बहुत ज्यादा

एक बार

तेरे चले जाने पर

मत करो फिर से

मुझे रुलाने के

सौ सौ इंतजाम

मेरा जीवन संवार लूँगी

आप ही मैं

छोड़ दो

मुझे मेरे 

हाल पर

याद रखना

प्रेम कोई

सौदा नहीं है

बन सको तो

बनो बस इंसान

बस इंसान

जिसे बचा सको तो

बचा लेना

व्यर्थ की

बदगुमानियों से।


अवांछित

 अवांछित


अवांछित थी वह

जानकर

बुरा लगा था

फिर सिर झटक

मन को

समझाना ही

ठीक लगा

उसकी दरकार

हर कहीं थी 

श्रमदान उसका

अनकहा

धर्म था

काम के लिए

उसके नाम की

पुकार भी थी

पर उसके लिए

चाहत

किसी में नहीं

वह साधन थी

जैसे

पर चलता

आखिर कब तक

ऐसे

अब उसके लिए

चाहत है

इज्ज़त है

कद्र है

हाँ वह प्यार

करती है

खुद को

खुद पर गर्व करती

इठलाती फिरती है

उसे पंख 

लग गए हैं

न जाने कैसे

बरसों से प्यासे

हृदय को

अपने प्रेम

के जल से सींच

वह मुस्कुराती है

आईना देखती है

और सोचती है

अगर वह

पैदा न होती

तो दुनिया

वंचित

रह जाती

उसकी मुस्कान से

इस दुनिया के

हर कोने तक

पहुँचेगी उसकी

हँसी की

खनक

अपने जीवन को 

यूँ ही

व्यर्थ नहीं जाने देगी।


कोरोना से पहले

 कोरोना से पहले भी एक दुनिया थी 😊😊


कोरोना से पहले भी

एक दुनिया थी

जहाँ लोगों से

मिलना – जुलना

आम बात थी

दोस्तों की

भरमार हुआ

करती थी

एकांतवास तो

ऋषि – मुनियों

की दिनचर्या थी

बात बात पर

गले मिलने की

परंपरा थी

बिना उसके

हृदय के भावों का

कहाँ होता था

आदान – प्रदान

महफिलें थीं

मुशायरे थे

पनघट तो

छूट गया था पीछे

पर

जमघट थे

सम्मेलन थे

समारोह थे

परीक्षाएँ थीं

कक्षाएँ थीं

अब तो बस

चारदीवारी के

मध्य एकांत में

मोबाईल भरोसे

सारा संचार

इतिहास की

पुस्तकों में

पढ़ेगी अगली पीढ़ी

वो पुस्तक भी

भरसक 

ईबुक होगी

कि

कोविड 19

उर्फ कोरोना

से पहले भी

एक दुनिया थी

जो अरस्तु के कथन

 इंसान

सामाजिक प्राणी है

का सजीव प्रमाण थी।


महाप्राण

 महाप्राण


अमीरों की हवेली

गरीबों की पाठशाला

नहीं बन सकी

धोबी, पासी, चमार,

तेली अंधेरे का ताला

नहीं खोल सके

ये असंवैधानिक

जातिसूचक

शब्द हम

इस्तेमाल कर रहे

अपने लिए ही

करना पड़ा होगा

न चाहते हुए

तुम्हें भी

यही तो

रहे हैं

हमारे संबोधन

सदियों से

प्रयोग होते रहे

धड़ल्ले से

जिसकी आदत

पड़ चुकी

हमारे कानों 

और सबकी

जिह्वा को

पर तुम्हारी

सच्ची

सद्भावना थी

हमारे लिए

हमारे साथ

खड़े थे तुम

तन – मन – जीवन से

पर कहाँ

मिट सका अंधेरा

महाप्राण!

तुम हमारे

उज्ज्वल भविष्य के

लिए एक

क्रांतिकारी कवि रहे

तुम्हारी दी

ज्योति से

हमने बाँचे हैं अक्षर

खुरपी – कुदाल

थामे हुए

चलाने लगे कलम

आज बड़े से बड़ा

संस्थान दे रहा हमें

नॉट फाउंड सूटेबल

के सर्टिफिकेट्स

अब हमारी

योग्यता की

कितनी परीक्षा

होगी और?

अपने कद से

लंबी

अकादमिक प्रोफ़ाइल

लिए शिक्षण

संस्थानों पर

सिर पटक

हो रहे

हम लहु – लुहान

हमें राम,

पासवान,

महतो, चौरसिया,

राउत, भगत

आदि – इत्यादि कह

ऐसे संबोधित

किया जाता है

जैसे हम

पैदा ही

हुए हैं

अपमानित होने

के लिए

महाप्राण!

क्या

ला पाओगे

हमारे लिए

थोड़ी सी संवेदनशीलता

जब हमारे

प्रतिनिधित्व को

मिल सके

स्वीकृति

तथाकथित बुद्धिजीवी

आभिजात्य समाज में

ताकि हमारी

योग्यता को

देखा जाए

न कि

हमारी जाति को

महाप्राण

अकिंचन हूँ

संघर्ष से

घायल हूँ

जो आहत कर रही 

अपनी वाणी से तुम्हें

तो क्षमा चाहती हूँ

पर क्या करूँ

तुम्हारी कविता

आज तक फलीभूत

होती नहीं

दिख रही

जूही की कली

सब को

भाती है

पर पत्थर तोड़ती

युवती के हाथों

में कलम

किसी को

सूट नहीं करती

और उसे

बारंबार

नॉट फाउंड सूटेबल

का तमगा

दे दिया 

जाता है।


नज़र की दस्तक

 नज़र की दस्तक


आसमान …..

गिरा रहा है आँसू

नैन बरस रहे हैं

ये काले बादल भी

आँखों के काजल

सँग घुलमिल 

फैला रहे हैं कैसा

स्याहपन?

जो....

नज़रों को धुँधलाता

दिलों में

कालिमा पसारता

धुँआ धुँआ होकर

उड़ता चला

जा रहा

रोते आसमान को

और रुलाने

बरसते नैनों

ने संभलने की

की है

पुरजोर कोशिश

उम्मीद से

भरकर अब

वह सुंदर नज़र 

खटखटा रही है

दरवाज़ा

दस्तक कानों तक

पहुँच ही

नहीं रही है

तंत्रिका – तंत्र

सुन्न है

होना ही है 

उसे सुन्न

आखिर वह भी

एक तंत्र जो ठहरा।


परिधि का विस्तार

 परिधि का विस्तार


लघुता की

सीमित परिधि

को असीम तक

खींच ले जाने

की जद्दोजहद

प्रतियोगिता

किसी से न

रखने की

दृढ़ इच्छाशक्ति

न तृण

न पर्वत

न समुद्र 

न नदी

उसे नहीं

होना 

अपने सिवा

और कुछ भी

क्षितिज के 

बिंदु पर

पहुँचने की

आकांक्षा भी नहीं

बस........

जान लेना 

आत्म को

संतों के

शब्दों में

अंशी के

अंश को

हो जाना 

अपने जैसा

फिर बनाए

रखना 

अपने को

अपने ही जैसा

विशुद्धता ही

चुनौती 

और.... 

चुनौती के लिए

ही...

स्वीकार्य भाव

खालिस होना

ही तो 

एकमात्र लक्ष्य

फिर चाहे

वह दुर्गम 

या सुगम

स्वीकार 

मार्ग पर 

चलना भी

ठोकरें भी

जीत भी

यहाँ तक कि

हार भी

स्वीकार 

हर चुनौती।


Monday 26 December 2022

महानता की गाथाएं

 महानता की गाथाएँ


नवरात्र में कन्या – पूजन

साल के बाकी दिन

उनका बलात्कार

उनकी हत्या

फिर बलात्कारियों

और हत्यारों के

पक्ष में

दलीलें

उनका संरक्षण

एक पंक्ति में

थोड़ी सी निंदा

फिर दिखावे

के लिए

सजा की माँग

फिर निश्चिंतता

फिर उससे भी

हृदयविदारक

बलात्कार और हत्या

फिर दीवारों और

ट्रक के पीछे लिखना

बेटी बचाओ

बेटी पढ़ाओ

बेटा मिले भाग्य से

बेटी सौभाग्य से

आदि आदि आदि

वो व्यक्ति है

उसे व्यक्ति

की तरह

क्यों नहीं

जीने देते?

न मिलती किसी को

मुँह छुपाने की जगह

न चुल्लू भर पानी

बोलते जाते हैं

गाते रहते हैं

महानता की

गाथाएँ।


गणतंत्र दिवस

 गणतंत्र दिवस


बोला जाएगा

जोर जोर से

संवेदनशीलता

दुहराया जाएगा

जोर- शोर से

स्वतंत्रता

रटाया जाएगा

खूब जोर से

समानता

ऊँचे स्वरमे

उच्चरित होगा न्याय-न्याय

पर सबकुछ

होगा

कहने को

कहने भर को

गणतंत्र दिवस

मनता रहेगा

साल दर साल

बहत्तर क्या

और तिहत्तर क्या?


वेलेंटाइन वीक

 वेलेंटाइन वीक


गेंदा के

स्वर्ण कुंडल

शोभित कर्ण में

भ्रमर ने

गुंजायमान होकर

रखा है

प्रेम प्रस्ताव

बसंत ऋतु

उठान पर है

स्वयं को

युवा समझते किशोर ने

कोमल किशोरी

प्रेमिका को

सप्ताह भर

चॉकलेट, टेडी

इत्यादि

उपहारों से

लादकर

प्रोमिस डे

पर वादा कर

प्रपोज़ डे को

प्रेम का पक्का

प्रस्ताव

रख ही दिया

प्रेमिका की

आँखों में

प्रश्न है-

अगले वर्ष भी

तुम्हारी वेलेंटाइन

मैं ही रहूँगी न?


पुकार कर देखो तो

 पुकार कर देखो तो


पुकार थी

हृदय की

पहुँची थी

हृदय तक

तुम्हारी एक

पुकार पर

मेरा आना

अपनी व्यस्त

दिनचर्या को

थोड़ा और

अस्त-व्यस्त

करने पर भी

मेरा तनावरहित

होकर

यूं मुस्कुराना

ज्यों चनकती है तीसी

मिट्टी के तौले में

भुनते हुए

तुम्हारी परोसी

थाली पर

यूं टूट पड़ना

जैसे वर्षों की

भूखी हूँ

ये बात

अलग है कि

मैं खाकर आई थी

तुम्हारे प्यार

भरे आग्रह पर

मैं मौन हो

खाती रही

विविध पकवान

और मिष्टान्न

वो कौन हैं जो

कहते हैं कि

अब अपनापन

छीज रहा है

जबकि हृदय की

पुकार

पहुँच रही है

हृदय तक

अबाध गति से

आज भी

अभी भी

बिल्कुल पहले

की तरह।


अपरिपक्व प्रेम

 अपरिपक्व प्रेम


न मुझे

पता चल पाया

न उसे

कच्ची उम्र का

प्रेम सच्चा था

ये न

मुझे बताना आया

न उसे

समझना

छुपाने की

कोशिश में

उजागर होते रहे

भाव

हमदोनों को

छोड़कर

पूरी दुनिया

को पता थी

हमारी 

प्रेम-कहानी

पहले आप

की जिद में

न हो सकी

अभिव्यक्ति

अपरिपक्व प्रेम

संजो कर

रखा जा चुका

वक्त के

तहखाने में।


निर्णय

 निर्णय


शाम ढली है

उम्मीद नहीं

उनींदी शाम

अपने साये तले

उम्मीद के

कोमलतम तंतुओं

को दे रही आकार

नभ के पार

भी है नभ

धरती तले

भी है धरती

अपनी सीमाओं

से अनजान

अज्ञानी

कहता है

कुछ बचा कहाँ

हवा को

देख पाने को

पैनी दृष्टि

तो हो

जल के बीच

रहने वालों को

जुकाम नहीं होता

मेरे प्रत्यक्ष जो भी है

अपर्याप्त है

परोक्ष को

महसूस कर

ही करूँगी

कोई निर्णय।


Sunday 25 December 2022

वार्तालाप

 वार्तालाप


अंधेरे ने कहा

न जाने कौन

अचानक

बत्ती गुल कर देता है

मुझे तो

अंधेरे से बहुत

डर लगता है

छल की आँखें

छलछला आईं

घड़ियाली आँसुओं का

सैलाब लिए

नकली

मासूमियत

भर कर कहा

मुझे तो

कदम –

कदम पर

छलावा मिलता है

डर-डर कर

जी रहा हूँ

बेईमानी ने

मुँह बनाकर कहा-

ईमानदारी का तो

ज़माना ही नहीं रहा।

सच्चाई ने

बोलने को 

मुँह खोला ही था

कि इन सबने

अपनी आवाजें

ऊँची कर लीं

इनके मचाए

शोरगुल में

गुम कर दी

गई उसकी

आवाज़

शांति ने शांत रहकर

देखा – सुना

सबकुछ पर

बोलना तो वह

जानती ही

नहीं थी।


मनुहार

 मनुहार


मनुहार संजीवनी है

किसी मरते

इंसान के लिए

लक्ष्मण बूटी है

प्रेम के दो बोल

अवसाद में

जाने से बचा

लेने की औषधि है

मुस्कुराहट

विटामिन का

अजस्र स्रोत है

इंसान बीमार

और कमजोर

नहीं होता

बस उसके

जीवन में

प्यार की कमी

और उपेक्षा का

आधिक्य हो जाता है।


ठहर जाना तुम

 ठहर जाना तुम


सब छोड़ जाएँगे

पर ठहर जाना तुम

बस तुम्हारे

आसपास होने का सुख

मुझे बचा लेगा

व्यर्थ चिंताओं से

दुखों की पोटली

गाँठ खोलने का साहस

नहीं कर सकेगी

पड़ी रहेगी किसी

कोने में लावारिस

ट्रेन की भीड़ में

यात्री के हाथ से

स्टेशन पर गिरी

गठरी की तरह

तुम्हारी मुस्कुराहटें

और कहकहे

उसे कुचल देंगे

कुछ उसी अंदाज में

जैसे स्टेशन पर

गिरी गठरी को

जूतों तले रौंद

देते हैं यात्रीगण

तुम रहना मेरे पास

सुन लेना मेरी बातें

सबके पास बोलने को

न जुबान खुलती है

न कोई सुन ही पाता है

मेरी पहरों पहर

चलने वाली राम कहानी

जाना चाहो तब भी

यह सोचकर रुक जाना कि

तुम्हारे जाने से कोई

अकेला महसूस कर सकता है।


हिंदी हमारी पहचान है

  हिंदी हमारी पहचान है


जैसे बोलते हैं

वैसे लिखते हैं

ये तो हिंदी है

इसे सब समझते हैं

राजभाषा

संपर्क भाषा इत्यादि

विभिन्न भूमिकाएँ

व दायित्व निभाती हैं

वैज्ञानिक व

प्रामाणिक है

निकट से

निकटतम वर्णों के भेद

पहचानती है

उत्तर से दक्षिण

पूरब से पश्चिम

तक प्रेम से

बोली सुनी जाती है

स्वभाव से है सरल

क्षेत्र के अनुकूल

ढल जाती है

ग्लोबल हो गई है

कई बार चौंकाती है

अचानक

एयरपोर्ट पर

मिले अंग्रेज से

नमस्ते कहलवाती है

तत्सम-तद्भव

देशज विदेशज

का खजाना रखती है

बाल गीत कविता कहानी

ग़ज़ल से

कोर्ट कचहरी

तक चलती है

त्रिभाषा फार्मूला की जान है

हिंदी हमारी शान है

मान है स्वाभिमान है

हिंदी हमारी पहचान है


मातृभाषा एक अनुभूति

 मातृभाषा एक अनुभूति


झरने की कल-कल ध्वनि

कोयल की कर्णप्रिय कूक

नन्ही चिड़िया का कलरव

बुलबुल की तान लहरी सी

मधुर है मेरी मातृभाषा

इसकी सुगंध

रची-बसी है

मेरे हृदय में ऐसे

जैसे अमराई में

पसरी हो

आम्रमंजरी की सुरभि

बगिया में बेला

और गुलाब की भीनी

भीनी महक

मेरा अंतरतम

पुलक उठता है

इसे बोलकर-सुनकर

रंभाती गाय का स्वर

पहचान लेता है जैसे

दुधमुंहा बछड़ा

ठीक उसी तरह

पहचान लेती हूँ मैं

अपनी मातृभाषा

मेरी मातृभाषा

मेरी माँ है

मेरी जीवनशैली है 

मेरे अंतरतम् की

अनुभूति है

जिसे सँजोती हूँ

हर क्षण

मेरी मातृभाषा

मेरा जीवन है

जिसे जीती हूँ

हर क्षण।


Saturday 24 December 2022

पीतल से सोना

  पीतल से सोना

रास्ता संकरा होता गया

गर्दन फँसती गई

शरीर को लचीला

बनाने के जतन

भी कुछ

कम न किए

फिर तन सँग

मन भी

हो चला

कुछ लचीला

प्रत्यास्थता

बढ़ती गई

यूँ पीतल

सोना बनता गया।


चुटकी भर सौहार्द्र

 चुटकी भर सौहार्द्र


जाना सहृदयों का

इस संसार का

थोड़ा और

रुक्ष हो जाना

बढ़ना बेगानेपन के भाव का

घटना सौहार्द्र का

ये धरती

अपनी नमी और शीतलता

नदी अपनी तरलता

क्यों हमसे

वापस लेती जा रही

छीज रहा स्नेह

मिट्टी की सोंधी खुशबू

कहीं विलीन होती जा रही

हवा की

हल्की गर्माहट

बर्फ की ठंडक

और कठोरता में

ढल रही

इस दुनिया को

बचा लें

आओ हाथ बढ़ाएं

संभालें उतना

कम से कम

जितना

अपनी हथेलियां

थाम सकें

उपजाएँ सौहार्द्र

चुटकी भर ही सही।


मेरे दादा

 मेरे दादा


मेरे पसीने

और मिट्टी की

गंध कुछ

एक जैसी

लगती है

हाँ ये तो वाज़िब ही है

मेरे दादा किसान जो थे।


तेरे कहने से

 .तेरे कहने से


एक तेरे कहने से

बन जाती बात

खिल उठता मन

स्वर्णिम हो जाता दिन

सुलझ जातीं उलझनें

रुक जाते

आँखों की कोर पर ही

गालों पर ढुलकने वाले आँसू

चमक जाती किस्मत

हाँ! बस एक तेरे कहने से

जी उठती मैं

खिल जातीं बाँछें

बस! एक तेरे कहने से।


पक्की सहेली

 पक्की सहेली


जहाँ वो जाए

वहीं पहुँचे मुसीबत

छोड़ती नहीं है साथ

जिद्दी है

बेशरम भी

डाँट-फटकार, मार की भी

नहीं उसे परवाह

पूछती है वह

आँखें तरेड़ कर

मैं तो

चुपचाप निकली थी

तूने कब देख लिया

यूं बेताल की तरह

बना दिया

मुझे विक्रम

बख्श दे मेरी जान

छोड़ दे मुझे

हँसने लगी

मुसीबत

जान भी कहती

और जीतेजी

जाने को भी

तभी तो मैं बोलूँ

तू मासूम है

भोली है

पगली है

तुझे कैसे छोड़ दूं

अकेली

प्यारी, दुलारी, नार-नवेली

तू मान न मान

हूँ मैं तेरी

पक्की सहेली

पक्की सहेली।


Tuesday 20 December 2022

तकलीफ और अट्टहास

 . तकलीफ और अट्टहास


तकलीफ सुबकती रही

कोने में

अट्टहास बीच आँगन में

ठिठियाता रहा

तकलीफ संवारती रही

दूसरों का जीवन

अट्टहास दूसरों की गर्दन पर

चाकू चलाता रहा

तकलीफ दूसरों की

जान बचाने के लिए

कुर्बान होती रही

अट्टहास दूसरों को

कुर्बान कर

अपनी जेबें भरता रहा

तकलीफ जूझती रही

पर पीछे न हटी

अट्टहास आगे बढ़ता रहा

कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा


चीख-पुकार

 चीख-पुकार


गगनभेदी गूँज

अनसुनी

पीड़ितों की चीख

अनसुनी

बेटियों की पुकार

अनसुनी

गरीबों की

दर्दभरी दास्तान

अनसुनी

आखिर कब

सुनी-जाएगी

चीख-पुकार?

क्या सुनी भी जाएँगी कभी?

फिर अनकही

पीडाओं का बयान

हो भी तो कैसे?


क्षणभंगुर

 क्षणभंगुर


बादल गरजे

बरसने लगा पानी

भींगते गुलाब

मुस्कुराते रहे

उम्मीदों के

सुंदर स्वप्न

संजोते रहे कृषक

विरहिणी नायिका

बारिश में

आँसू छुपाती रही

राहगीर 

भींगने से बचने की कोशिशों में

खुद को

कीमती रत्न सा छुपाकर भी

भींगते रहे

मुस्कुराते रहे

सुखद सुंदर वातावरण

बदल गया मातम में

औचक वज्रपात ने

लील लिया

क्षणांश में ही

कितना कुछ

जीवन आखिर

क्षणभंगुर ही है।


रस्साकशी

 रस्साकशी


कठिनाई आई

बारंबार

रंगरूप बदलकर

नए-नए

लिबास पहनकर

इत्र-फुलेल से

महकाती खुद को

रुआब झाड़ती

लाट साहबी

हम भी ठहरे

जन्मजात जुझारू

कठिनाई आती रही

टकराती रही

मुँह के बल

गिरती-पड़ती

घुटने, केहुनी,ठुड्डी

चोट खा

सहलाती रही

मुकाबला बराबरी का

टक्कर भी काँटे की

यूँ ही चलती

रही है

कठिनाई सँग रस्साकशी


उम्मीद की दस्तक

 उम्मीद की दस्तक


अल्लसुबह..

नई उम्मीद

दस्तक देती

दिलोदिमाग की

दहलीज पर

थकान की चादर फेंक

ओढ़ लेती हूँ

उर्जा की दुशाला

जिधर कोई

झाँकना भी नहीं चाहता

उधर भी

चल पड़ती हूँ

दस्तक पड़ती रहती है

निरंतर

दिल देता रहता है

दिलासा

आएगी नई

सुबह जरूर

उसे देखने को तू

रहे न रहे

पर तेरा प्रयास

व्यर्थ नहीं जाएगा।


Monday 19 December 2022

किस तरह मिलें

 

किस तरह मिलें
उनसे
जिन्हें समझने को
हमारे पास
समय नहीं है
किस तरह
मिलें उनसे
जिनके हिस्से पर
हमारी दख़ल है
किस तरह मिलें उनसे
जिनके लिए हमारे
शब्दकोश में
एक शब्द भी नहीं है
किस तरह मिलें उनसे
जिन्हें अबतक
हमने सिर्फ
दुत्कारा है
आखिर किस तरह
मिलें उनसे
जिससे आँख
मिलाने के काबिल
हमने खुद को ही
नहीं छोड़ा है।


कलेजे का क्रमिक विकास

 कलेजा काँपता था

किसी का

हक मारतेहुए

कभी मुँह को

आ जाता था

किसी को

बीमार देखकर

बेचारा टूक-टूक

भी हो जाता था

किसी को

दुःखी देखकर

कभी-कभार

उसपर साँप भी

लोट जाया करता था

क्योंकि उसमें थोड़ी

ईर्ष्या भी थी

पर तसल्ली थी

कि कलेजा

अभी बचा था

पर अब

कलेजे की

जगह काठ

धरा है

जिसकी हांडी

बनाकर

एकबार में ही

पुरी दाल गला

लेने को है आतुर

आखिर वह

दुबारा

चढ़ जो नहीं सकती।


रवैया

 

विश्वास ने कभी
अपना स्वभाव नहीं
बदला
अडिग बना रहा
जहाँ चुका
सूत भर भी
वहाँ से चलता बना
जहाँ से एक बार
चला
पलट कर
आया भी नहीं
छलावा रूप
बदल-बदल कर
लोगों को अपना
शिकार बनाती रही
प्यार लुटता रहा
कपट लूटती रही
विश्वास बाहें फैलाकर
प्यार का स्वागत
करता रहा
छलावा छल-कपट
की दुकान
सजाती रही।


मनुष्य के हाथ में

 

बुरा होना होताहै
तो हो जाता है
रोक पाना
मनुष्य के हाथमें
है भी नहीं
पर उसके
हाथ में है
स्वयं बुराई का निमित्त
बनने से पीछे
हट जाना
बुरा होने से
रोकने का
हर संभव प्रयास करना
और अपने
हाथों से
अच्छे काम
और जुबान से
अच्छे शब्द प्रयोग
करना
अच्छा होने
की कामना
करते रहना
इंसानियत को
बनाने -बचाने
के लिए
प्रतिबद्ध और
तत्पर रहना
इतना अभ्यास
करके भी
बहुत ऊपर
उठा जा सकता है।


Sunday 18 December 2022

सच्ची बात

 सच्ची बात


हाँ सच्ची बात

कह दी जाएगी

विश्वास कौन करेगा

पीड़ित अपना पक्ष

रख तो दे

उसपर विचार

कौन करेगा

गरीबों का मसीहा

कहलाते हैं जो

उनके नौकर को

पगार कौन देगा

मंच पर देते भाषण

स्त्री विमर्श पर

देर रात पीटते हैं

जूतों से पत्नी को

घरेलू हिंसा रोकने को

बेल कौन बजाएगा


सातवां आसमान

 2. सातवाँ आसमान

गुड़हल की लाली

गुलाब की कोमलता

अल्हड़ किशोरी

काया जैसे लता

संधि-वयस पर खड़ी

बड़ी-बड़ी आँखों में

बड़े-बड़े स्वप्न लिए

खोलती है पँख

छूने को आसमान

माँ का कलेजा

पीपल के पत्ते सा कंपित

पिता का हृदय

क्षण-क्षण आशंकित

बिटिया की चाहतें

ज़माने की दुश्वारियां 

संभलकर बिटिया

ध्यान रहे मेरी बच्ची

सड़क पर आकर उसका

डर-डर कर चलना

फूँक-फूँककर

कदम रखना

जब तक न लौटे

मातापिता की

टिकी रहती हैं

घड़ी पर निगाहें

एक एक दिन

कटता है 

सौ-सौ प्रार्थनाओं में

डर है

मन के भीतर

बहुत डर है

पर डर के मारे

बिटिया के

पँख न कतरेंगे

उसे सिखाएँगे

सामना करना

उड़ान भरना

उड़कर छू लेना

सातवें आसमान को


लिहाज़

 लिहाज़


सफेद परिधान पर

खून के छींटे

छुपाए नहीं

छुपते थे

अब पूरा लिबास ही

रंग गया है

खून में

देखनेवालों की हैरत पर

परिधान का

उत्तर था-

खून दूसरों का नहीं

मेरा है

बहाता रहा हूँ

समय-समय पर

देश के लिए

समाज के लिए

हैरत से

देखने वाले

फिर कभी

दिखे ही नहीं

हाँ सुनने में आया है

वे भी टपका दिए गए हैं

खूनी परिधान

घूमता है

पूरी निडरता से

उससे डरकर लोग

खिड़की-दरवाजे

बंद कर लेते हैं

ऐसी दहशत को

कोई दहशत 

नहीं कहता है 

सब कहते हैं

समाज में उनकी

इज्जत है, रुतबा है

बड़े-छोटे सभी

उनका खूब-खूब

लिहाज़ करते हैं


हस्ताक्षर

 1. हस्ताक्षर

जिस कजरौटी में

अँगूठा बोरकर

लगाती थी छाप

कागज़ात पर

बिना जाने

बिना बूझे

उसी कजरौटी में

तीली डुबोकर

लिखने लगी है

अब रिनिया

अँगूठा छाप न रही

हस्ताक्षर

करने लगी है।


Saturday 17 December 2022

मेट्रो में 5

 मेट्रो में 5

देर रात मेट्रो से 

घर लौटती महिलाएँ

थकी-हारी

उनींदी

मेट्रो-स्टेशन पर 

तेजी से दौड़ती हैं

प्लेटफॉर्म के अगले

हिस्से की ओर

हालांकि कदम

उठाने भर की

उर्जा भी

नहीं बची होती है

तब तक

एक-डेढ़ घंटे के लंबे सफ़र को 

सुरक्षित और सुकुनदेह 

बनाने का

ख्याल उनकी थकी टाँगों को 

बढ़ाता है आगे 

मेट्रो के रुकते ही

उतरने-चढने का कठिन संघर्ष

जिन्हें सीट मिली,

आँखें बंद कर

थकान मिटाने की 

आधी-अधूरी कोशिशों

में लेने लगी झपकियाँ 

जो खड़ी हैं कर रही हैं

सीट खाली होने की 

बेसब्री से प्रतीक्षा 

घर की

जिम्मेदारियां

झांक रही हैं अगल-बगल से

बज रहे हैं फोन

घनाघन 

सब बैठे हैं उनके...... 

नहीं-नहीं 

भोजन के इंतजार में 

ये मध्यवर्गीय 

कामकाजी महिलाएँ 

हमेशा डिमांड में 

रहती हैं,

सुबह दफ़्तर से 

लगातार फोन आते हैं,

रास्ते भर,

रात को घर से,

मेट्रो से निकलते हुए 

गुनगुनाना

चाहती हैं ये कोई 

मधुर गीत 

ताकि भर सकें 

खुद को नई 

ऊर्जा से

घर जाकर 

शुरू होनी है 

ड्यूटी की अगली शिफ्ट

मध्य-वर्गीय 

कामकाजी 

महिलाओं के लिए मेट्रो 

एक सराय भी है,

जहाँ सफ़र के दौरान 

थोड़ा सुस्ता लेती हैं 

व देख लेती हैं 

कुछ सुनहरे 

स्वप्न।   

  



मेट्रो में 4

 मैट्रो में 4


एक दुनिया बाहर

दूसरी मैट्रो के भीतर

जहाँ रेलमपेल

धक्का-मुक्की

शोर-शराबा

पर सब

अपने में डूबे

खोए-खोए से

अगल-बगल

बैठे-खड़े

रगड़ खाते कंधों के साथ

आपस में बोलना तो दूर

किसी की ओर

देखते भी नहीं

नज़रें गड़ाने को

सबके हाथों में

है न मोबाईल

जो दिनबदिन

और और

स्मार्ट होता जा रहा है

और इंसान

उसका ग़ुलाम

गेम

ऑडियो-वीडियो कॉल,

बेतरतीब बातचीत

मेट्रो में गिरते शब्द

टकराते हैं

कानों से

जैसे

टीन की छप्पड़ पर

बरस रहे हों ओले

चारों ओर की बातचीत

कानों में

पड़ती है टुकड़ों में

ये बातें जो प्रायः

हो रही होती हैं

फोन पर

कभी-कभार

प्रत्यक्ष भी

ये टुकड़े

मन के भीतर

अनायास

जुड़ते चले जाते हैं

कितनी ही

कहानियों का संसार रचते

जैसे ये शब्दों के टुकड़े नहीं

जीवन के 

अनुभवों की लड़ियाँ हैं

जो जुड़ते ही चले जाते हैं

एक-दूसरे से निरंतर

एक बिंदु पर पहुँचकर

तिरोहित हो जाता है

अपने-पराए का भाव

उपजती है सहजता

जहाँ सब एक हैं

क्या मैं

क्या तुम

सब में मैं

मुझमें सभी

अनुभव

अपने या दूसरों के

दे जाते

आँसू, हँसी, सीख

कितना-कितना कुछ

फिर मनोभाव

तो स्वाभाविक रूप से

संक्रामक

यूँ ही

चलती-रुकती

मैट्रो के मध्य

चलता जाता है

भावों-अनुभवों का

सतत आदान-प्रदान।


मेट्रो में 3

 मेट्रो में 2


आज की तारीख में

मेट्रो सिर्फ एक

यातायात का साधन-मात्र नहीं

बन गई है

आज यह

महानगरों की

जीवनरेखा

दिनचर्या

जीवनशैली

और भी न जानें

क्या-क्या

कितना-कितना

कुछ-कुछ

जहाँ बीतते हैं

अनगिन पल

अनजानों के बीच

पहचान के सूत्र

जोड़ती मेट्रो

किसी खास वक्त

पर

किसी खास रुट में

अकसर मिलनेवालों के बीच

पनपते हैं जहाँ से

भीड़ और एकांत से

मुठभेड़ करते

कुछ अनकहे संबंध

बिना संवाद

आँखों की भाषा से

एक-दूसरे से जुड़ते लोग

गाहे-बगाहे

टकराते

छिटकते

दूर भागते

पास आते

भीड़ में खोने से

डरता मनुष्य

थोड़ा-थोड़ा खोता

डूबता-उतराता मनुष्य

जैसे लगता है किनारे

कुछ-कुछ सोता

कुछ-कुछ जागता सा

धीरे से संभलता 

अपने मनुष्य होने को

महसूस करता सा

किसी अंजान

आँखों में

छलकते आंसू

रो-रोकर

लाल हुई आँखें

ले आती हैं

अनायास ही

उसकी आँखों में भी

आँसुओं का उमड़ता सैलाब

आखिर मनुष्यता का

संबंध

हमारे अवचेतन से

ऐसे ही पलों में तो

उभर आता है

मशीनों के बीच

चलते-फिरते

निरंतर जूझते

मशीन बनते जाते

इस अदना से मनुष्य को

रोती हुई

लाल आँखें

रुला ही देती हैं,

आँखें अजनबी हुईं तो क्या

संवेदना

कतरा-कतरा

बिखर ही

जाती हैं

फुरसत तो यूँ

रुककर कुछ

पूछने की

किसी को नहीं है

जो कोई

अपने कुछ पल

जाया कर

आगे बढ़

पूछ भी ले तो

कहाँ बता पाता है

कोई अपना दुख

सिमट आता है वापस

वह फिर से

अपने खोल में

चल देता है

गंतव्य पर

आँखों से ही

कुछ बोलता सा

आशा जीवित है

आँखों में

आखिर मनुष्य

अभी

इतना भी 

कठोर नहीं बन पाया है।


मेट्रो में 2

 मेट्रो में 2


आज की तारीख में

मेट्रो सिर्फ एक

यातायात का साधन-मात्र नहीं

बन गई है

आज यह

महानगरों की

जीवनरेखा

दिनचर्या

जीवनशैली

और भी न जानें

क्या-क्या

कितना-कितना

कुछ-कुछ

जहाँ बीतते हैं

अनगिन पल

अनजानों के बीच

पहचान के सूत्र

जोड़ती मेट्रो

किसी खास वक्त

पर

किसी खास रुट में

अकसर मिलनेवालों के बीच

पनपते हैं जहाँ से

भीड़ और एकांत से

मुठभेड़ करते

कुछ अनकहे संबंध

बिना संवाद

आँखों की भाषा से

एक-दूसरे से जुड़ते लोग

गाहे-बगाहे

टकराते

छिटकते

दूर भागते

पास आते

भीड़ में खोने से

डरता मनुष्य

थोड़ा-थोड़ा खोता

डूबता-उतराता मनुष्य

जैसे लगता है किनारे

कुछ-कुछ सोता

कुछ-कुछ जागता सा

धीरे से संभलता 

अपने मनुष्य होने को

महसूस करता सा

किसी अंजान

आँखों में

छलकते आंसू

रो-रोकर

लाल हुई आँखें

ले आती हैं

अनायास ही

उसकी आँखों में भी

आँसुओं का उमड़ता सैलाब

आखिर मनुष्यता का

संबंध

हमारे अवचेतन से

ऐसे ही पलों में तो

उभर आता है

मशीनों के बीच

चलते-फिरते

निरंतर जूझते

मशीन बनते जाते

इस अदना से मनुष्य को

रोती हुई

लाल आँखें

रुला ही देती हैं,

आँखें अजनबी हुईं तो क्या

संवेदना

कतरा-कतरा

बिखर ही

जाती हैं

फुरसत तो यूँ

रुककर कुछ

पूछने की

किसी को नहीं है

जो कोई

अपने कुछ पल

जाया कर

आगे बढ़

पूछ भी ले तो

कहाँ बता पाता है

कोई अपना दुख

सिमट आता है वापस

वह फिर से

अपने खोल में

चल देता है

गंतव्य पर

आँखों से ही

कुछ बोलता सा

आशा जीवित है

आँखों में

आखिर मनुष्य

अभी

इतना भी 

कठोर नहीं बन पाया है।


Friday 16 December 2022

मेट्रो में1

 मेट्रो में 1


मेट्रो मे घुसते ही 

बंद होने लगे दरवाजे 

डर से चिहुँक 

उठा लखना 

प्रतिक्रिया स्वरूप 

सिकुड़ गए कंधे 

झुक गया सिर 

आँखों के आगे 

पल भर को 

छा गया 

भीषण अंधेरा 

जिसमें 

देख पाया वह 

श्यामा के 

उजले दाँत 

अकस्मात् 

कानों में उभरी 

पायल की 

रुनझुन ध्वनि 

श्यामा जैसे 

यहीं-कहीं हो 

हेलो-हेलो 

सुनकर 

टूटी तंद्रा 

सामने वाला व्यक्ति 

दाँत निपोड़े 

वीडियो कॉल पर 

हँस-हँस कर 

बतियाने में मग्न 

यहाँ आकर लखना 

खो गया भीड़ में 

कोई नहीं पुकारता 

-रे लखना 

कहकर 

आधार कार्ड में अंकित 

लक्षमण प्रसाद 

ऑफिसवालों की 

जुबान पर 

लकी बन कर 

उभरा है 

मेट्रो में 

कैद हो 

सुबह और 

देर रात 

जहाँगीरपुरी से 

इफको चौक के मध्य 

आवागमन 

करता वह 

याद करता है

श्यामा को 

इसी अगहन 

ब्याह लाएगा 

उसे भी दिल्ली 

श्यामा का फेसबुक पर 

स्टेटस अपडेट 

-गॉट मैरिड देख 

उसके पैरों तले 

मेट्रो खिसक कर भी 

बढ़ती रही

अपने ही ट्रैक पर 

बुधना के साथ 

सजी-धजी 

दुल्हन श्यामा

सेल्फ़ी सँग स्टेटस 

ट्रेवलिंग टू सिंगापुर 

लखना रो रहा है 

भरी मेट्रो में 

उसकी ओर 

कोई नहीं 

देख रहा    


शिवशंभु

 शिवशंभु


बहुत याद आते हो 

शिवशंभु

तुम्हारी तरह 

चिट्ठे तो क्या

एक छोटी सी 

पर्ची लिखने का भी 

मुझे शऊर नहीं

तुम होते तो 

कुछ पूछ भी लेती 

और इसी तरह 

धीरे-धीरे

कुछ सीख भी लेती 

शिवशंभु तुम तो बस 

तुम ही थे 

कहाँ हो सका 

कोई भी तुझसा 

इतनी खरी-खरी 

कैसे कह लेते थे 

बताओगे?

बिना डरे 

लॉर्ड कर्ज़न को भी  

उसकी गलतियाँ 

गिना देते थे

वो भी ऐसे 

हँसते-खेलते

बुलबुल उड़ाते 

एकदम मजे में

खुद को बूढ़ा भंगड़ 

भी कह लेते थे 

कठिनाई में भी 

हँस लेते 

और हँसा भी देते थे 

शिवशंभु 

तुम तो बस तुम्हीं थे 

आज छोटे-बड़े 

असंख्य लॉर्ड कर्ज़न 

कर रहे मनमानी 

तब तो एक थीं 

विक्टोरिया महारानी 

आज हैं अनगिनत

ताकत का जश्न 

देख रहा है 

दीन-हीन  

जन-समूह 

क्या कहूँ 

कितना कुछ है 

होठों पर बेबसी 

आँखों में आँसू 

पर बोलने की 

हिम्मत अब किसमें

रह गई है शिवशंभु?

बोलने वालों 

को तो अब 

डराया जाने लगा है 

लिखने की 

हिम्मत कौन जुटाए 

आज चिट्ठों की 

तुम्हारे चिट्ठों की 

जरूरत है 

तुम्हारे जैसे 

हौसले की जरूरत है 

इसीलिए तो तुम 

और बहुत 

याद आते हो शिवश्म्भु 



बचके रहना तुम

 बचके रहना तुम


तुम बचके रहना उनसे

जो निहायत सज्जन हैं

नहीं जानते हैं

छह-पाँच

बहुत आसानी से

ठग लेते हो

जिन्हें …

उनसे बिल्कुल

बचके रहना तुम 

याद रहे

जिनके दिल

अबोध बच्चों जैसे हैं

जो दूर हैं

छल-कपट की दुनिया से

जिन्हें आता ही नहीं है

नौ-छह करना

निश्चित ही

बचके रहना उनसे

छेड़ना मत उन्हें

हाथ भी न लगाना भूलकर भी

जो तुम्हारे

पूर्वजों द्वारा भी

सताए गए हैं

तुम्हारी गाली खा जो

चुप रह गए 

तुम्हारे द्वारा थप्पड़ लगाने पर

गाल पकड़कर

रोए 

किंतु पलटकर

नहीं मारा तुम्हें

याद रखो

भली-भाँति समझ लो

बचके रहना उनसे

जिनकी मजदूरी

तुम पचा गए

जन्मभर की जमा-पूँजी खा गए

जिनके पैसे लेकर बैठ गए

और भरोसा खा गए

जिनके सारे रास्तों के

आड़े आ गए तुम

जिनको इस्तेमाल किया

तुमने तेल-साबुन की तरह

देख लो

बचके रहना पड़ेगा तुम्हें उनसे

जिनकी विनम्रता को

समझ बैठे तुम

कमजोरी

जिनके घर तुम करते रहे

दिन-रात चोरी

जो गरीब होकर भी

उदार हैं 

कृपणता के स्वामी सुनो

उनसे बचके ही 

रहना तुम

जिन्हें नहीं आता 

झूठ बोलना

नहीं हैं जिनके पास

सैकड़ों चेहरे

जो गिरगिट की तरह

रंग बदलना

नहीं जानते 

उनसे बचके रहना तुम

जिनके दिल पारदर्शी हैं

स्वच्छ जल की तरह

जो सह लेते हैं सबकुछ

धरती की तरह

जिन पर पाँव रखकर

चढ़ते हो तुम

सीढी की तरह

खबरदार!

उनसे बचके रहना तुम

अभावों में मुस्कुराने वाले

दूसरों का बोझ

कंधों पर ढोने वाले

कुली-कबाड़ी, मजदूर, बेलदार कह

संबोधित करते हो जिन्हें

उनसे पूरी तरह

बचके ही रहना तुम

विरासत में जिन्हें

चाँदी का चम्मच नहीं

खुरपी-कुदाल मिली हैं

जिनके सिर पर 

छप्पड़ तक नहीं

देह नंगी, 

और पेट

पीठ में धँसा है

मन में है तूफान

और फिर भी होंठ सिले हैं

उनसे बचके रहना तुम

जो सच्चे हैं

सीधे हैं

भोले-भाले

बहुत ही अच्छे हैं

आसानी से

मान लेते हैं

तुम्हारी बात

उनसे बचके ही रहना तुम

जो तुम्हारे जूते से

कुचले जाने पर भी

जिंदा बच गए

तुम्हारी लाठी खाकर भी

दम नहीं तोड़ा

सिर्फ घायल हुए

जो रखते हैं माद्दा

सीने पर गोली खाने का

उनसे बचके रहना तुम

हाँ-हाँ उनसे बचके ही रहना

क्योंकि जिस दिन

टूट जाएगा उनके सब्र का बाँध

कर देंगे तुम्हें बेनकाब

मुँह छुपाने की भी जगह

नहीं मिलेगी तुम्हें

मारेंगे घुसकर तुम्हें

तुम्हारे ही घर में

फाड़ देंगे तुम्हारी छाती

करेंगे हिसाब तुम्हारे

एक-एक कुकृत्य का

इसीलिए बेहतर है कि

उनसे बचके ही रहना तुम

बचकर रहना उनसे

जो चलकर आए हैं अपने पैरों पर

फट गए हैं जिनके जूते

घिस गए हैं तलवे

बिवाई भरी हैं एड़ियाँ

गिरते-पड़ते

छिल गए हैं जिनके 

घुटने, हथेली और मुँह

उनसे बचके रहना तुम

भूखे पेट, प्यासे गले

और जागती आँखों से

जिसने जिया है संघर्ष को

रोते-रोते रुँध गई है आवाज

बलगम भरी छाती

ईलाज और पोषण के अभाव में

हो गई है छलनी

उसकी ताकत का अंदाज़ा

कहाँ हो सकता है तुम्हें

इसलिए तुम

उनसे बचके रहना

जिनके पास

न थाली है न रोटी

सब्जी-साग और सालन

ख्वाब तक में नहीं है

हाथ मत साफ करना

उनके चने-चबेने पर

सावधान!

बस उनसे बचके रहना तुम।


नकाबपोश

 एक चोर नकाबपोश

दूसरा सफेदपोश

नकाबपोश शर्मिंदा है

चोरी करते हुए

तो छुपा लेता है मुँह

सफेदपोश ताकत के

घमंड में चूर

करता है चोरी

भला मुझ पर

कौन शक करेगा

और जो करेगा

बोलने की हिम्मत

कहाँ जुटा पाएगा

हिम्मत करके यदि 

जुटा भी ले

तो यकीन कौन करेगा

और यदि लोग

यकीन करने लगेंगे

तो बोलने वाले को

उड़ा दिया जाएगा

ताकि फिर

कोई और

मुँह खोलने की

हिम्मत

नहीं जुटा पाएगा

नकाबपोश

करता है चोरी

क्योंकि मजबूर है

भूख-गरीबी

अभाव से चूर है

न नौकरी

मिल रही

न मजदूरी

जूते नहीं हैं

तो ….

घिस गए हैं तलवे ही

फ़टी एड़ियों से

बह रहा है

थोड़ा-थोड़ा खून

इस तरह

हो रही है उसके कमजोर

शरीर में

खून की थोड़ी और कमी

मारा-मारा फिरता बेचारा

हारा-हारा सा

सारे रास्ते बंद हो जाने पर

करता है चोरी

घर से निकलने से पहले

ईश्वर से माँगता है क्षमा

चुराता है उतना ही

जितने से

भर जाए पेट

हो जाए

रहने-खाने 

ओढ़ने-बिछाने का प्रबंध

लूटता है किसी

अमीर को

ताकि 

मन में न उपजे ग्लानि

आत्मा में

न हो कचोट

कभी-कभी

नकाबपोश को

नहीं मिल पाता

चोरी का मौका

जब लोग

रहते हैं जागृत

या ज्यादा सचेत

तब मजबूरी में उसे

छीनना भी

पड़ जाता है

लेना पड़ जाता है

यदा-कदा

लाठी, छुरी,  चाकू

तमंचे का 

सहारा भी

सफेदपोश छीन लेते हैं

उन सबके अधिकार

जिनके भी छीन पाता है

इस तरह इनका अहं

थोड़ा और

पुख़्ता हो जाता है

छीन लेते हैं

लोगों के वेतन

नौकरी

रोज़गार

पावर के खेल में

उसे आता है 

ऐसा आनंद

कि उसे रोज़

जरूरत होती है

एक नए शिकार की

खून लगा मुँह

कब नियंत्रित रहा है भला

किसी तरह

नकाबपोश

लुक-छिपकर

देता है

अपने काम को अंज़ाम

पहुँचा आता है

संतरी से मंत्री

तक कमीशन

मगर

बीच-बीच में

फिर भी पकड़ा जाता है

खाता है मार

पुलिस की

साल के छह महीने

जेल में बिताता है

बाहर निकलकर

करता है

नए सिरे से

अच्छा काम 

करने की कोशिश

हारकर फिर

बन जाना

पड़ता है 

नकाबपोश उसे

आखिर सवाल

ठहरा पापी पेट का

सफेदपोश कभी नहीं

पकड़ा जाता

समय के साथ

बढ़ती जाती है

उसके अपराध की जघन्यता

जघन्यतम समझती है

जिसे दुनिया

उससे भी

ऊपर वह

कर गुजरता है

शान से चलता है

अनाथालय

वृद्धाश्रम

मंदिरों में

करता है गुप्तदान

सफेदपोश

कभी नहीं पकड़ा जाता

बस समय के साथ

धीरे-धीरे उसका मन

अधिक से अधिक

स्याह होता जाता है

एक वक़्त के बाद

भीतर ही भीतर

खाने लगता है खुद को ही

अचानक किसी दिन

अनायास अपनी

अहं की ऊँची

इमारत से वह

नीचे लुढ़क जाता है।






Tuesday 13 December 2022

माँ जैसी



माँ जैसी


बचपन से ही मैं

माँ जैसी 

होना चाहती थी

उनकी साड़ी

लपेट स्वयं को

आईने में

निहारती थी

उनकी ही

तरह मुस्कुराना

चाहती थी

वैसी ही

उदारता अपने

भीतर उत्पन्न

करना चाहती थी

आज भी मैं

माँ जैसी ही

होना चाहती

हूँ

कोशिश जारी है

माँ जैसी

हो पाना

अच्छा इंसान

होने का

पुख़्ता प्रमाण

है मेरे लिए

हाँ मैं

माँ जैसी

होने के पथ पर

प्रयासरत हूँ।



व्यर्थता-बोध

 व्यर्थता -बोध


जजर्र दरवाजे पर

सूखी मकड़ी की

लाश चिपकी पड़ी है

दरवाजे की दरारें

जैसे चीख चीख

कर कहती है

गिलहरी और तोते

के आशियाने

हरे भरे पेड़ को

कभी मुझमें

भी जीवन था

कभी मुझ पर भी

आश्रित थे

जीवन से भरे जीव

आज भी

मिटा नहीं हूँ

जिंदा-मुर्दा

मकड़ियां और

छिपकलियां मुझे

व्यर्थता का बोध

नहीं होने देती हैं।


ठंड का प्रकोप

 ठंड का प्रकोप


जो ठंड 

उसकी हड्डियों को

गला रही थी

वह मौसम के

गिरते तापमान

से नहीं

रिश्तों में

आए बेगानेपन

से उपजी थी।


चिपके दाँत

 खुलकर जीना 

चाहती थी

मगर किसी तरह

ज़िंदगी को

काट लेने पर

मजबूर थी

मुस्कुराना चाहती थी

मगर उसके

परिणामों से

इस कदर

डरा दिया गया था

कि ऊपर के

दाँतों को

निचली दंतपंक्ति पर

कसकर दबा देती थी

उसने देखा-सुना

था बेहोशी में

दंतपंक्तियों को

आपस में

इस तरह चिपकते

जैसे फेविकोल का

जोड़ हो

गाँव में ऐसी

अवस्था को

दाँती लगना

कहते थे

वह होश में आना

चाहती थी

मगर कड़वे

अनुभवों से

पार पाने के लिए

उसे दांती लगी

अवस्था में

बेसुध पड़े रहना

भी अब मंजूर

होने लगा है।


Monday 12 December 2022

अहम और वहम

 अहम और वहम


अक्सर आदमी

जब बड़ा आदमी

हो जाता है

फिर वह आदमी

नहीं रह जाता है

वह भूल जाता है

इंसानियत

छोड़ देता है

मासूमियत

वह बस

अहंकार में

डूबा अहम को

पोषित करने

लगता है

धीरे-धीरे

हो जाता है

वहम का शिकार

उसे लगता है

वही ईश्वर है

अहम और वहम

के मध्य दबकर

भी उसकी अकड़

बढ़ती ही जाती है

अकड़ की पकड़ से

नहीं छूट पाता है

फिर कभी


Saturday 10 December 2022

प्यार करनेवाले

 

प्यार करनेवाले

प्यार करने वाले
कभी नहीं
जताते प्यार
प्रदर्शन उन्हें
आता भी नहीं
जहाँ तक
सम्भव हो
छुपाते हैं
प्यार से लबालब
भावनाएँ।
नहीं रखते
अपेक्षा
बदले में
प्यार की।
बस प्यार देते हैं
देते चले जाते हैं
प्यार करनेवाले
होते हैं
सच्चे पथिक
जिन्हें मंजिल
की नहीं
होती आकांक्षा
वे तो
रास्तों को
बुहारते चलते
हैं अपनी
पलकों से
प्यार करने वाले
मिलते कहाँ हैं
सबको
जिन्हें मिलते हैं
उन्हें कद्र
कहाँ होती है
लोग कहते हैं
पागल
उन्हें
उन्हें दुनियादारी
जो नहीं आती।


Thursday 8 December 2022

अवांछित

 अवांछित


अवांछित थी वह

जानकर

बुरा लगा था

फिर सिर झटक

मन को

समझाना ही

ठीक लगा

उसकी दरकार

हर कहीं थी 

श्रमदान उसका

अनकहा

धर्म था

काम के लिए

उसके नाम की

पुकार भी थी

पर उसके लिए

चाहत

किसी में नहीं

वह साधन थी

जैसे

पर चलता

आखिर कब तक

ऐसे

अब उसके लिए

चाहत है

इज्ज़त है

कद्र है

हाँ वह प्यार

करती है

खुद को

खुद पर गर्व करती

इठलाती फिरती है

उसे पंख 

लग गए हैं

न जाने कैसे

बरसों से प्यासे

हृदय को

अपने प्रेम

के जल से सींच

वह मुस्कुराती है

आईना देखती है

और सोचती है

अगर वह

पैदा न होती

तो दुनिया

वंचित

रह जाती

उसकी मुस्कान से

इस दुनिया के

हर कोने तक

पहुँचेगी उसकी

हँसी की

खनक

अपने जीवन को 

यूँ ही

व्यर्थ नहीं जाने देगी।


सर्वाधिकार@बिभा कुमारी


रोटी बनाम लड़की

 रोटी बनाम लड़की


कलम छोड़कर

गर्म तवे पर

रोटी रखती

पतली उंगलियां

जैसे रोटी के साथ

पक रही है लड़की

उलट-पुलटकर

रोटी फुलाती

सिंक रही है लड़की

अभी वयः संधि

पर खड़ी है

जिस उम्र के लिए

कवियों ने कहा था कि

बचपन गया नहीं

पर युवावस्था के

लक्षण प्रकट

हो गए हैं

नहीं 

रीतिकालीन नायिका

नहीं है लड़की

उस ज़माने की

आधुनिक नवयुवती है

जिसमें बेटी-बेटे में

फ़र्क न किये

जाने के

जोरदार दावे

किए जा रहे हैं

रसोई का तापमान

तकरीबन 

पचास डिग्री है

सोलह डिग्री तापमान वाले

वातानुकूलित बेडरूम तक

गरम रोटी परोसती

शरद-गरम

हवा के थपेड़ों से गुजरती

झुलस रही है लड़की

रोटी कच्ची रह गई

फूली नहीं

गोल नहीं बनी

किस देश का नक्शा

बना लाई

अरे पूरी रोटी

जली हुई है

तानों से कानों और 

मन के कोनों को

भर रही है लड़की 

आ रही है और

भी आवाज़

लड़कियों को

भूलना नहीं चाहिए 

लाज-लिहाज़

झुकी रहें पलकें

बँधी रहें अलकें

आदेशों-उपदेशों

के बोझ तले दबी

हुक्म बजाती

ससुराल जाने की

ट्रेनिंग पूरी करती

परम्परा निभाती

तर्क सम्मत

उक्तियों को

मन में दबाकर

हाँ-ना में

सर हिला रही है लड़की

सबकी आँखें हैं

पर कोई देखता नहीं

भीतर ही भीतर

कितना टूट रही है लड़की।





ज्योत्स्ना उतरती है

 ज्योत्स्ना उतरती है


झुकाकर आसमान

बाँस की अलगनी

टांग देने का हुनर

कोई खास

कलाकारी

नहीं मानी जाती यहाँ

ये बाढ़ग्रस्त क्षेत्र है

जहाँ कभी 

उठा लेती हैं

धरती

और झुका लेती हैं

आसमान

यहाँ की

महिलाएँ

इन अलगनी पर

सुखाती हैं

आर्द्र मन

सीलन से है

इनका गहरा नाता

कभी आँसू

कभी स्वेद

कभी बारिश

तो कभी

शिशु के मूत्र

में भींगकर ये

झल्लाती नहीं

अपितु

मुस्कुराती हैं

इनके

श्रम गीत

फ़िज़ां में रस भरते हैं

अब ये श्रम में

शामिल कर चुकी हैं

वैश्विक घटनाचक्र पर विमर्श

इनकी शब्दावली

में पारिभाषिक,

अर्धपारिभाषिक शब्द

सहज ही आते हैं

ये कविता रचती हैं

हवा की

तेज लहरों की

सवारी करती हुई

यदि इनसे न हो सका

परिचय

तो अभी शेष है

सीखना

बहुत कुछ

फुहारें पड़ती हैं

सब पर

उसकी अनुभूति

में उतर पाते हैं

सच्चे सहृदय

यूं ज्योत्स्ना

उतरती है

एकसाथ

सबके लिए

उससे तादात्म्य

कोई कर पाए

ये वही जाने।


Tuesday 6 December 2022

छोटी सी बात

 बस! एक छोटी सी बात ही तो थी

आँखों में कट गई रात ही तो थी


जिन पर छिड़कते रहे जान रात-दिन

उनकी बेवफाई सौगात ही तो थी


कहाँ-कहाँ की बातें याद आती हैं

न हुई ठीक से मुलाकात ही तो थी


मेरा चेहरा ही बयाँ कर देता दिल का हाल

देख सके नहीं ताज्जुब की बात ही तो थी


अनमोल खजाने लुटा दिए सस्ता जान

कुदरत की दी हुई सौगात ही तो थी


जब देखो बरस पड़ती हैं आदतन मेरी आँखे

औरों की नज़र में मामूली बरसात ही तो थी


साजो-सामान जुटाते गुजार दी है जिंदगी

खो गई रौनक दुनिया लौटती बारात ही तो थी


हँसते हैं भोलेपन पे तो हँस लेने दे बिभा

कुछ कर दिखाने की ये शुरुआत ही तो थी


अरुणिमा

 अरुणिमा


बड़े होने के क्रम में

पहले पहल

ध्यान गया था 

रंगीन चीजों की तरफ

उसे बेहद 

लुभाती थी

माँ-चाची के

चेहरे पर लाल-कत्थई,

नीली-हरी 

पीली-सुनहरी

चम्पई बिंदियाँ

माथे पर सजती थीं

ऐसी

कि लगे देखते ही रहो,

कुछ और बड़े होने के क्रम में

पता चला

इतनी खूबसूरत बिंदी

स्त्री लगाए या न लगाए

ये समाज तय करता है,

उसे पुरनी बुआ का सूना माथा

अच्छा नहीं

लगता था,

तो उसने माँ की

बड़ी लाल बिंदी

लगा दी थी बुआ के 

माथे पर

और कहा था

तुम्हारे सामने

मीनाकुमारी,

वैजयंती माला

सब फेल हैं,

झन्नाटेदार थप्पड़

पड़ा था

उसके गाल पर,

ऐसी गिरी थी

कि देख भी न पाई मारने वाले को,

सुनाई पड़ी थी

पर 

माँ की आवाज

कैसा प्रायश्चित

अबोध बालिकाएँ हैं,

गलती हो गई,

समझा लेंगे हम

वो समझ नहीं पाई थी,

मामला बिल्कुल भी

थी तो बुआ गाँव भर में

सबसे सुंदर

पर उसके जीवन से ही

सुंदर रंग छीन लिए थे 

सबने मिलकर

यह कहकर कि

ये बाल-विधवा है,

कुछ कुछ बड़े होने के क्रम में

बड़ी हुई उसकी बुद्धि भी

और जान गई थी,

अबोध वह नहीं थी,

आज भी वह देखेगी

बुआ के सुंदर ललाट पर

सुंदर, बड़ी

लाल बिंदी

दौड़ कर

सजा दिया है

उनका ललाट

सुबह के उगते

सूरज जैसी बिंदी से

भोर की लाली

पसर गई है

बुआ के चेहरे पर

देखती है

आज

कौन रोकता है उसे

बुआ के जीवन में

प्रकाश लाने से।


वह खुद तय करेगी

 वह खुद तय करेगी


आज़ाद ख्याल

लड़कियाँ

लोगों की सोच से

लाख दर्ज़े

बेहतर होती हैं

कोई हक़ नहीं है

किसी को उसे

नापने-तौलने या

किसी खाँचे में

बिठाने या

साँचे में

ढालने का

अपनी जीवन-शैली

वह खुद तय करेगी

औरतों को

नहीं देता

ढूंढने का

विकल्प समाज

अधिकतर चीजें

उस पर थोप

दी जाती हैं

उससे पूछा नहीं जाता

अक्सर कुछ भी

बस थमा दिया जाता है,

थोप दिया जाता है

अपेक्षा की जाती है

फिर भी उफ़्फ़ न करे

बस कोल्हू के बैलों की तरह

आँख पर पट्टी लगा,

घूमती रहे,

दायरे में

उसे धरती कह

सहना सिखाया जाता है,

इतिहास के पन्ने गवाह हैं,

यहाँ रचे गए हैं

स्वयंवर

पर,

ये बीते युग की बात है

इक्कीसवीं सदी में

कहते हैं

माता-पिता

पढ़-लिख चाहे जितना

तेरे विवाह का निर्णय

हम करेंगे।

जो बिटिया

लगाना ही हो दिल

तो मूल-गोत्र, जाति

जान लेना,

हम अरेंज कर देंगे

तेरे लव को  

बिटिया नाक मत कटवाना

उठने-बैठने देना

हमें बिरादरी में।

न मान जो कर लेती हैं

अपने मन से ब्याह

तो ऑनर किलिंग

कराते भी देर नहीं लगती है।

कहते हैं,

वक्त आगे बढ़ गया

हाँ!

बस मुट्ठी भर

लड़कियों के लिए,

आज भी

आज़ाद ख्याल लड़कियाँ

कहाँ भाती हैं

किसी को,

न घर में

बाहर

फिर वही क्यों

सोचती रहे

कुढती रहे,

घुटती रहे

उसे हक है

जीने का

प्यार देने और पाने का

उसे हक़ है

अपना जीवन

अपनी मर्ज़ी से

बिताने का

आप न दें

कुछ भी

वह बना लेगी सब कुछ

जो दूसरों का जीवन

संवारती आई है

उसे हक है

अपना जीवन

संवारने का।


Monday 5 December 2022

उदय और अस्त

 उदय और अस्त


जो आज है

कल नहीं रहेगा

परसों तक

बदल जाएगा

और भी

जाने कितना क्या

सुना है

जब भी तेरा

अट्टहास……

पिच से थूक

दिया है किसी ने

पान की गिलौरी भरे मुँह से

पीक

बिना सोचे

कि जहाँ वह

थूक रहा है

सार्वजनिक स्थान है 

जिसे स्वच्छ

रखना

आमोखास का फर्ज़ है

यहाँ ज्ञान

सिर्फ बांटने के

लिए है

फंड चाहे जिस भी

मद के लिए हो

लूटने के लिए है

क्या फ़र्क पड़ता है

इससे कि

कोई कहता क्या है

हाँ बहुत ज्यादा

फ़र्क पड़ता है

इससे कि

कोई करता क्या है

तोड़ दिये जाते हैं

यूँ तो बड़े-बड़े वादे भी

पर एक छोटी सी कोशिश भी

किसी को चाँद पर

ले जाता है

जिसे बोलना है

बोलते हैं

जिसे करना है

करते हैं

देखने-सुनने वाले

देखते और

सुनते हैं

पर किसी के जाने बिना

चुपके से मन

सबका मूल्यांकन करता है

निर्धारित पाठ्यक्रम

और

रटे-रटाए उत्तर

नम्बर बटोर

इतराते रहें लोग

कुछ तो

अनायास

जीवन की परीक्षा

उत्तीर्ण कर भी

कहते हैं

मुझे कुछ नहीं

आता है

गंतव्य का पता तो

विरले को मालूम है

न जाने 

कहाँ पहुँचने की 

होड़ में

वह दौड़ा चला जाता है

बारी तो एक दिन

आनी है सबकी

जीत और हार भी तो

मिलनी है सबको

धरी रह जानी है

चालाकी-होशियारी

कर लेते हों भले

लोग दुनिया

को मुट्ठी में

पर कोई वक्त को कहाँ

अपने काबू में

कर पाता है

मैं बड़ा तो मैं बड़ा

मेरी बुद्धि

मेरी ताकत

अहंकार-भाव में डूबा

अपने मुँह मिठ्ठू बन

इतराता फिरता है

जो हो तो कहना क्यों

जो नहीं तो जरूरत क्या

अपने नाम और

तसवीर के इश्तहार

जहाँ-तहाँ

क्यों लगवाता है

कुर्सी का क्या 

आज है

कल नहीं

सामर्थ्य भला

हुई है स्थायी कभी?

ऊँचा चढ़ने की

होड़ में

मुँह के बल

गिरता है

उठने की जल्दी

में

कितना गिरे

कुछ होश नहीं

आगे बढ़ने के लिए

कितने सिर

दबा दिए

पैरों के नीचे

कहाँ सोया था विवेक

आत्मा जल कर

खाक हो गयी थी क्या?

उदय ही तो

कारण है

अस्त का

और जन्म ही

मृत्यु का।


धूप में बारिश

 धूप में बारिश


होती है जब

धूप में बारिश

कारण ढूंढता है

मन-मस्तिष्क

विज्ञान क्या कहता है

याद नहीं

भूगोल में जो पढ़ा

वह भी

याद नहीं

याद है तो बस

लोक में प्रचलित

कथन

जिसका न

विज्ञान से

लेना-देना

न भूगोल से

न ही

कार्य-कारण संबंध से

पर लोक प्रचलित 

कथन है

जब गीदड़ का

ब्याह होता है

तो होती है

धूप में बारिश

यह बेतुका

उत्तर 

याद रह जाता हर बार

और भूल जाते

हैं बार-बार दुहरा कर

पढ़ने के बावजूद भी

तमाम

वैज्ञानिक-तार्किक

कारण।


मिस अंडरस्टैंडिंग

 मिसअंडरस्टैंडिंग


तुमने माँगा था

तकिया

मैं ने भी

लाकर दे दिया था

नाराज़ हो गए थे तुम

तुम हर बात

लक्षणा और व्यंजना

में करते हो

मैं अभिधा के अतिरिक्त

कुछ भी नहीं जानती।


खूबसूरत अंदाज़ में झूठ

 खूबसूरत अंदाज़ में झूठ


कभी तारीफ़

नहीं करते थे

मैं इसरार करती

मेरी तारीफ़

करिए न!

जबाब होता

मुझे झूठ बोलना

नहीं आता

कल अचानक

बोल पड़े

मधुबाला से भी

ज्यादा सुंदर

लगती हो

झूठ बोलना

सीख गए क्या?

वह भी

बहुत खूबसूरत

अंदाज़ में।


Sunday 4 December 2022

मीरा की प्रासंगिकता

 मीरा की प्रासंगिकता


मीरा रहेंगी

प्रासंगिक

तब तक

जब तक

धरा पर

विशुद्ध प्रेम है

समर्पण उनका

दिखता है 

आज भी

यहाँ-वहाँ

चारों ओर

जीवित हैं मीरा

उनका नाम 

चाहे जो

कुछ भी हो

कृष्ण ने ही

कहा था न

नाम तो

पुकारने का

साधन मात्र है।


नाश्ता और टिफिन 2

 नाश्ता और टिफिन2


उनींदी आँखें

भोर पहर

खुलती हैं

जिम्दारियों की फेहरिस्त

मन ही मन

रिवाइज करती हुई

नींद लोहे के जूते पहने

पाँवों से जैसे

कुचल रही हो

आँखों को

जागने-सोने

के बीच की

अन्यमनस्क सी स्थिति में

बंद आँखों से

राह टटोलती

किचन में

पहुँचकर

चाय का पानी

चढ़ा देती है

न जाने किस

झोंक में

सबका नाश्ता-टिफिन

बना देती है

घड़ी की

तीव्र गति से जूझती

भागती-दौड़ती

लड़खड़ाती

दफ्तर के

बायोमेट्रिक में

समय पर

अंगूठा भी

लगा ही देती है

याद आता है

पेट की

गुड़गुड़ाहट के साथ

अपना पैक्ड टिफिन 

और नाश्ता

भूल आई है

डायनिग टेबल पर ही

पानी की बोतल

के साथ ही।


नाश्ता और टिफिन 1

 नाश्ता और टिफिन1


बासी रोटी खाती

अशरफी उगलती है

जी हाँ!

कामकाजी महिला है

नौकरी करती है

अपने ओहदे

और पावर को

परिवार-समाज से

छुपाती है

सिरचढी का तमगा

पाने से डरती है

बोलना तो जैसे

भूलने लगी है

घर हो या दफ्तर

सुनती रहती है

अंग-अंग 

टूटा-टूटा सा

पोर-पोर में

घर है दर्द का

सह-सह कर

मुस्कुराती रहती है

हाँ! उसके

ठहाके पर

पाबंदी है

अरसा हुआ

बालों में तेल डाले

सूखे बालों में बस

ऊपर ही ऊपर

कंघी कर

जुड़ा बना लेती है

उसकी नौकरी से

सब खुश हैं

रहें क्यों न

ड्यूटी के अलावा

घर-बाहर के

सारे काम भी करती है

पर गुरेज है न

उसके निर्णय लेने से

उसे क्या

लेना-देना

फैसले तो उसे

सुनने हैं

और उसके मुताबिक

काम करने हैं

नींद ने आँखों में

फिक्स्ड डिपॉजिट 

कर ली है

वह भले बैंक में

औरों की

फिक्स-डिपॉजिट

करती हो

सबको खुश

रखते-रखते

भूल गई है

अपनी खुशी

सबकी खुशी में

खुश हो लेती है

पाई-पाई जोड़

खड़ा किया

शीश महल

पर उससे क्या

ढाक के तीन पात

एक कोने में

रिजेक्टेड पीस सी

पड़ी रहती है।


लाडला

 लाडला


पीछे मुड़कर

देखना

चाहता था

रुक-रुक कर

चलना चाहता था

रास्ते की खूबसूरती

पलकों में

उतारना चाहता था

पर उसे

चलाया गया

बिना उसकी

मर्ज़ी पूछे

भगाया गया

तेजी से

जैसे कि

उतारा गया हो उसे

फार्मूला वन रेस में

वह तो बस

घिसटता रहा

खिसकता रहा

बस जैसे-तैसे

घायल होता

क्षत विक्षत 

होकर भी 

आगे बढ़ता रहा

छिले पाँवों की जलन

मन को

छीलती रही

मन जाने कैसे

कब और क्यों

रिवर्स गियर

में चलने लगा

जितना ही

आगे बढ़ता जा रहा है

मन उतनी ही

तेजी से

अतीत की

तरफ भागा जा

रहा है

सब समझते हैं

वह महँगी

कुर्सी पर बैठा

बॉस है

बस वही

जानता है

कि वह

माँ की गोद

और

पिता के कंधे

पर बैठा 

नन्हा बालक है

जिसे अफसर

बनाने के

लिए जबर्दस्ती

ट्रेन में

बिठा होस्टल

भेज दिया गया था

बहुत हुआ

अब आँखें मूंद

खयालों में ही सही

बना रहना

चाहता है

बस्स 

अपने माँ-पिता

का लाडला

और कुछ भी नहीं।


आज के लोग

 आज के लोग


देख कर अनदेखा करना

और कहना

मैंने तो देखा ही नहीं

सुन कर अनसुना करना

फिर कहना

मैंने तो सुना ही नहीं

जान कर अनजान बनना

और फिर कहना

मुझे तो कुछ पता ही नहीं

पहचान कर

अजनबी की तरह

आगे बढ़ जाना

टोकने पर कहना

ओह! तुम हो

मैंने तो पहचाना ही नहीं

हालात कुछ

ऐसे ही हैं

कम्बल में मुँह ढंककर

पीते हैं घी

रो-रोकर 

कहते हैं

पैसे ही नहीं हैं।


Saturday 3 December 2022

चित्रकार की नजर से

 चित्रकार की नज़र


देखना शहर को

एक चित्रकार की

नज़र से

सड़क पर चलती गाड़ी

ब्रिज पर चलती मेट्रो

किसी कोने में

टंगी तख्ती

किसी दरवाजे

पर खड़ा आदमी

कुछ भी

तो नहीं छूटता

उसकी नज़र से

चित्रकार

कितनी सूक्ष्मता से

देखता उकेरता है

प्रत्येक बारीकी

कितना खूबसूरत

अनुभव है

देखे-अनदेखे 

शहर को देखना

एक चित्रकार की नज़र से।


मन लगे कैसे

 मन लगे कैसे


जो लग जाए

मन न लगने का रोग

तो मन फिर

लगे कैसे

जब मन लग जाए

मन सँग

तो मन फिर

लगे कैसे

लागे जब से नैन

उन नैनों सँग

न रहा फिर

मन का चैन

भला ये

मन फिर लगे कैसे

लिए गए वो

मन मेरा

अपने ही सँग 

माँगा तो

गए पलट

न देखा मैंने 

तेरा मन

देखो रखा होगा

तुमने ही

कहीं

हाँ यहीं कहीं

ढूँढो खुद

न करो मुझे तंग

अब मन जो

हो ही न

अपने सँग

तो फिर मन

लगे कैसे

भोले भाले बन

ले चले

मेरा मन

पूछूँ तो जाएँ मुकर

ये मन फिर

लगे कैसे

मेरी ही मति

मारी गई जो

मिलाई नज़र

नज़र थी या क़यामत

क्या जानूँ मैं

नन्ही सी भोली सी

छोटी सी मैं

नादान

भटकती फिरती हूँ

जानी-पहचानी

गलियों में

कोई दे न

रास्ता ढूंढ

डरी सहमी सी

नन्ही जान

कहो मन

लगे कैसे

काली पलकें

काली भौंहें

चमकती 

काली चंचल पुतली

घिरी बैठी है

पहरों बीच

न दिखे जो

प्यारी सूरत 

तो बोलो न

मन लगे कैसे?


Friday 2 December 2022

अपनापन

 अपनापन


कुछ रिश्ते 

विरासत में नहीं मिलते

बल्कि इसी

ज़मीन पर

हम बनाते हैं

बात से

विचार से

व्यवहार से

ये रिश्ते

होते हैं

आस के

विश्वास के


Thursday 1 December 2022

स्मृतियों की पिटारी

 स्मृतियों की पिटारी


खूबसूरत पलों की 

खुशियाँ..

संजो लें

इन पलों के

बीतने से पहले

हाथ आते-आते

फिसल जाना

पारे की तरह

खिसक जाना

स्वभाव है

पलों का

लंबे इंतजार

बाद आती हैं

निमिष मात्र

में जाती हैं

समेट लूँ

मुट्ठी, अंजुरी

और आँचल में

कहीं फिर

से न गुजर

जाएँ ये

सुनहरे पल

रखना

संभालकर

स्मृतियों की

पिटारी

ताकि

सनद रहे।