व्यर्थता -बोध
जजर्र दरवाजे पर
सूखी मकड़ी की
लाश चिपकी पड़ी है
दरवाजे की दरारें
जैसे चीख चीख
कर कहती है
गिलहरी और तोते
के आशियाने
हरे भरे पेड़ को
कभी मुझमें
भी जीवन था
कभी मुझ पर भी
आश्रित थे
जीवन से भरे जीव
आज भी
मिटा नहीं हूँ
जिंदा-मुर्दा
मकड़ियां और
छिपकलियां मुझे
व्यर्थता का बोध
नहीं होने देती हैं।
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