Saturday 17 December 2022

मेट्रो में 3

 मेट्रो में 2


आज की तारीख में

मेट्रो सिर्फ एक

यातायात का साधन-मात्र नहीं

बन गई है

आज यह

महानगरों की

जीवनरेखा

दिनचर्या

जीवनशैली

और भी न जानें

क्या-क्या

कितना-कितना

कुछ-कुछ

जहाँ बीतते हैं

अनगिन पल

अनजानों के बीच

पहचान के सूत्र

जोड़ती मेट्रो

किसी खास वक्त

पर

किसी खास रुट में

अकसर मिलनेवालों के बीच

पनपते हैं जहाँ से

भीड़ और एकांत से

मुठभेड़ करते

कुछ अनकहे संबंध

बिना संवाद

आँखों की भाषा से

एक-दूसरे से जुड़ते लोग

गाहे-बगाहे

टकराते

छिटकते

दूर भागते

पास आते

भीड़ में खोने से

डरता मनुष्य

थोड़ा-थोड़ा खोता

डूबता-उतराता मनुष्य

जैसे लगता है किनारे

कुछ-कुछ सोता

कुछ-कुछ जागता सा

धीरे से संभलता 

अपने मनुष्य होने को

महसूस करता सा

किसी अंजान

आँखों में

छलकते आंसू

रो-रोकर

लाल हुई आँखें

ले आती हैं

अनायास ही

उसकी आँखों में भी

आँसुओं का उमड़ता सैलाब

आखिर मनुष्यता का

संबंध

हमारे अवचेतन से

ऐसे ही पलों में तो

उभर आता है

मशीनों के बीच

चलते-फिरते

निरंतर जूझते

मशीन बनते जाते

इस अदना से मनुष्य को

रोती हुई

लाल आँखें

रुला ही देती हैं,

आँखें अजनबी हुईं तो क्या

संवेदना

कतरा-कतरा

बिखर ही

जाती हैं

फुरसत तो यूँ

रुककर कुछ

पूछने की

किसी को नहीं है

जो कोई

अपने कुछ पल

जाया कर

आगे बढ़

पूछ भी ले तो

कहाँ बता पाता है

कोई अपना दुख

सिमट आता है वापस

वह फिर से

अपने खोल में

चल देता है

गंतव्य पर

आँखों से ही

कुछ बोलता सा

आशा जीवित है

आँखों में

आखिर मनुष्य

अभी

इतना भी 

कठोर नहीं बन पाया है।


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