वार्तालाप
अंधेरे ने कहा
न जाने कौन
अचानक
बत्ती गुल कर देता है
मुझे तो
अंधेरे से बहुत
डर लगता है
छल की आँखें
छलछला आईं
घड़ियाली आँसुओं का
सैलाब लिए
नकली
मासूमियत
भर कर कहा
मुझे तो
कदम –
कदम पर
छलावा मिलता है
डर-डर कर
जी रहा हूँ
बेईमानी ने
मुँह बनाकर कहा-
ईमानदारी का तो
ज़माना ही नहीं रहा।
सच्चाई ने
बोलने को
मुँह खोला ही था
कि इन सबने
अपनी आवाजें
ऊँची कर लीं
इनके मचाए
शोरगुल में
गुम कर दी
गई उसकी
आवाज़
शांति ने शांत रहकर
देखा – सुना
सबकुछ पर
बोलना तो वह
जानती ही
नहीं थी।
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