Thursday 8 December 2022

ज्योत्स्ना उतरती है

 ज्योत्स्ना उतरती है


झुकाकर आसमान

बाँस की अलगनी

टांग देने का हुनर

कोई खास

कलाकारी

नहीं मानी जाती यहाँ

ये बाढ़ग्रस्त क्षेत्र है

जहाँ कभी 

उठा लेती हैं

धरती

और झुका लेती हैं

आसमान

यहाँ की

महिलाएँ

इन अलगनी पर

सुखाती हैं

आर्द्र मन

सीलन से है

इनका गहरा नाता

कभी आँसू

कभी स्वेद

कभी बारिश

तो कभी

शिशु के मूत्र

में भींगकर ये

झल्लाती नहीं

अपितु

मुस्कुराती हैं

इनके

श्रम गीत

फ़िज़ां में रस भरते हैं

अब ये श्रम में

शामिल कर चुकी हैं

वैश्विक घटनाचक्र पर विमर्श

इनकी शब्दावली

में पारिभाषिक,

अर्धपारिभाषिक शब्द

सहज ही आते हैं

ये कविता रचती हैं

हवा की

तेज लहरों की

सवारी करती हुई

यदि इनसे न हो सका

परिचय

तो अभी शेष है

सीखना

बहुत कुछ

फुहारें पड़ती हैं

सब पर

उसकी अनुभूति

में उतर पाते हैं

सच्चे सहृदय

यूं ज्योत्स्ना

उतरती है

एकसाथ

सबके लिए

उससे तादात्म्य

कोई कर पाए

ये वही जाने।


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