Saturday 17 December 2022

मेट्रो में 4

 मैट्रो में 4


एक दुनिया बाहर

दूसरी मैट्रो के भीतर

जहाँ रेलमपेल

धक्का-मुक्की

शोर-शराबा

पर सब

अपने में डूबे

खोए-खोए से

अगल-बगल

बैठे-खड़े

रगड़ खाते कंधों के साथ

आपस में बोलना तो दूर

किसी की ओर

देखते भी नहीं

नज़रें गड़ाने को

सबके हाथों में

है न मोबाईल

जो दिनबदिन

और और

स्मार्ट होता जा रहा है

और इंसान

उसका ग़ुलाम

गेम

ऑडियो-वीडियो कॉल,

बेतरतीब बातचीत

मेट्रो में गिरते शब्द

टकराते हैं

कानों से

जैसे

टीन की छप्पड़ पर

बरस रहे हों ओले

चारों ओर की बातचीत

कानों में

पड़ती है टुकड़ों में

ये बातें जो प्रायः

हो रही होती हैं

फोन पर

कभी-कभार

प्रत्यक्ष भी

ये टुकड़े

मन के भीतर

अनायास

जुड़ते चले जाते हैं

कितनी ही

कहानियों का संसार रचते

जैसे ये शब्दों के टुकड़े नहीं

जीवन के 

अनुभवों की लड़ियाँ हैं

जो जुड़ते ही चले जाते हैं

एक-दूसरे से निरंतर

एक बिंदु पर पहुँचकर

तिरोहित हो जाता है

अपने-पराए का भाव

उपजती है सहजता

जहाँ सब एक हैं

क्या मैं

क्या तुम

सब में मैं

मुझमें सभी

अनुभव

अपने या दूसरों के

दे जाते

आँसू, हँसी, सीख

कितना-कितना कुछ

फिर मनोभाव

तो स्वाभाविक रूप से

संक्रामक

यूँ ही

चलती-रुकती

मैट्रो के मध्य

चलता जाता है

भावों-अनुभवों का

सतत आदान-प्रदान।


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