अरुणिमा
बड़े होने के क्रम में
पहले पहल
ध्यान गया था
रंगीन चीजों की तरफ
उसे बेहद
लुभाती थी
माँ-चाची के
चेहरे पर लाल-कत्थई,
नीली-हरी
पीली-सुनहरी
चम्पई बिंदियाँ
माथे पर सजती थीं
ऐसी
कि लगे देखते ही रहो,
कुछ और बड़े होने के क्रम में
पता चला
इतनी खूबसूरत बिंदी
स्त्री लगाए या न लगाए
ये समाज तय करता है,
उसे पुरनी बुआ का सूना माथा
अच्छा नहीं
लगता था,
तो उसने माँ की
बड़ी लाल बिंदी
लगा दी थी बुआ के
माथे पर
और कहा था
तुम्हारे सामने
मीनाकुमारी,
वैजयंती माला
सब फेल हैं,
झन्नाटेदार थप्पड़
पड़ा था
उसके गाल पर,
ऐसी गिरी थी
कि देख भी न पाई मारने वाले को,
सुनाई पड़ी थी
पर
माँ की आवाज
कैसा प्रायश्चित
अबोध बालिकाएँ हैं,
गलती हो गई,
समझा लेंगे हम
वो समझ नहीं पाई थी,
मामला बिल्कुल भी
थी तो बुआ गाँव भर में
सबसे सुंदर
पर उसके जीवन से ही
सुंदर रंग छीन लिए थे
सबने मिलकर
यह कहकर कि
ये बाल-विधवा है,
कुछ कुछ बड़े होने के क्रम में
बड़ी हुई उसकी बुद्धि भी
और जान गई थी,
अबोध वह नहीं थी,
आज भी वह देखेगी
बुआ के सुंदर ललाट पर
सुंदर, बड़ी
लाल बिंदी
दौड़ कर
सजा दिया है
उनका ललाट
सुबह के उगते
सूरज जैसी बिंदी से
भोर की लाली
पसर गई है
बुआ के चेहरे पर
देखती है
आज
कौन रोकता है उसे
बुआ के जीवन में
प्रकाश लाने से।
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