कलेजा काँपता था
किसी का
हक मारतेहुए
कभी मुँह को
आ जाता था
किसी को
बीमार देखकर
बेचारा टूक-टूक
भी हो जाता था
किसी को
दुःखी देखकर
कभी-कभार
उसपर साँप भी
लोट जाया करता था
क्योंकि उसमें थोड़ी
ईर्ष्या भी थी
पर तसल्ली थी
कि कलेजा
अभी बचा था
पर अब
कलेजे की
जगह काठ
धरा है
जिसकी हांडी
बनाकर
एकबार में ही
पुरी दाल गला
लेने को है आतुर
आखिर वह
दुबारा
चढ़ जो नहीं सकती।
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