उदय और अस्त
जो आज है
कल नहीं रहेगा
परसों तक
बदल जाएगा
और भी
जाने कितना क्या
सुना है
जब भी तेरा
अट्टहास……
पिच से थूक
दिया है किसी ने
पान की गिलौरी भरे मुँह से
पीक
बिना सोचे
कि जहाँ वह
थूक रहा है
सार्वजनिक स्थान है
जिसे स्वच्छ
रखना
आमोखास का फर्ज़ है
यहाँ ज्ञान
सिर्फ बांटने के
लिए है
फंड चाहे जिस भी
मद के लिए हो
लूटने के लिए है
क्या फ़र्क पड़ता है
इससे कि
कोई कहता क्या है
हाँ बहुत ज्यादा
फ़र्क पड़ता है
इससे कि
कोई करता क्या है
तोड़ दिये जाते हैं
यूँ तो बड़े-बड़े वादे भी
पर एक छोटी सी कोशिश भी
किसी को चाँद पर
ले जाता है
जिसे बोलना है
बोलते हैं
जिसे करना है
करते हैं
देखने-सुनने वाले
देखते और
सुनते हैं
पर किसी के जाने बिना
चुपके से मन
सबका मूल्यांकन करता है
निर्धारित पाठ्यक्रम
और
रटे-रटाए उत्तर
नम्बर बटोर
इतराते रहें लोग
कुछ तो
अनायास
जीवन की परीक्षा
उत्तीर्ण कर भी
कहते हैं
मुझे कुछ नहीं
आता है
गंतव्य का पता तो
विरले को मालूम है
न जाने
कहाँ पहुँचने की
होड़ में
वह दौड़ा चला जाता है
बारी तो एक दिन
आनी है सबकी
जीत और हार भी तो
मिलनी है सबको
धरी रह जानी है
चालाकी-होशियारी
कर लेते हों भले
लोग दुनिया
को मुट्ठी में
पर कोई वक्त को कहाँ
अपने काबू में
कर पाता है
मैं बड़ा तो मैं बड़ा
मेरी बुद्धि
मेरी ताकत
अहंकार-भाव में डूबा
अपने मुँह मिठ्ठू बन
इतराता फिरता है
जो हो तो कहना क्यों
जो नहीं तो जरूरत क्या
अपने नाम और
तसवीर के इश्तहार
जहाँ-तहाँ
क्यों लगवाता है
कुर्सी का क्या
आज है
कल नहीं
सामर्थ्य भला
हुई है स्थायी कभी?
ऊँचा चढ़ने की
होड़ में
मुँह के बल
गिरता है
उठने की जल्दी
में
कितना गिरे
कुछ होश नहीं
आगे बढ़ने के लिए
कितने सिर
दबा दिए
पैरों के नीचे
कहाँ सोया था विवेक
आत्मा जल कर
खाक हो गयी थी क्या?
उदय ही तो
कारण है
अस्त का
और जन्म ही
मृत्यु का।
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