Thursday 8 December 2022

अवांछित

 अवांछित


अवांछित थी वह

जानकर

बुरा लगा था

फिर सिर झटक

मन को

समझाना ही

ठीक लगा

उसकी दरकार

हर कहीं थी 

श्रमदान उसका

अनकहा

धर्म था

काम के लिए

उसके नाम की

पुकार भी थी

पर उसके लिए

चाहत

किसी में नहीं

वह साधन थी

जैसे

पर चलता

आखिर कब तक

ऐसे

अब उसके लिए

चाहत है

इज्ज़त है

कद्र है

हाँ वह प्यार

करती है

खुद को

खुद पर गर्व करती

इठलाती फिरती है

उसे पंख 

लग गए हैं

न जाने कैसे

बरसों से प्यासे

हृदय को

अपने प्रेम

के जल से सींच

वह मुस्कुराती है

आईना देखती है

और सोचती है

अगर वह

पैदा न होती

तो दुनिया

वंचित

रह जाती

उसकी मुस्कान से

इस दुनिया के

हर कोने तक

पहुँचेगी उसकी

हँसी की

खनक

अपने जीवन को 

यूँ ही

व्यर्थ नहीं जाने देगी।


सर्वाधिकार@बिभा कुमारी


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