Tuesday 13 September 2016

जान - बूझकर

जानबूझकर,
कर ली हो,
जिन्होंने,
अंधेरों से दोस्ती,
उन्हें कोई,
दर्पण कैसे,
दिखलाए।
आँखों को,
बन्द कर,
अंधेरों में घिरकर,
आख़िरकार,
रास्ते बन्द ही तो,
होते हैं।
जो डर गए,
राह बनाने के,
श्रम से,
उन्हें कोई,
राह कैसे,
दिखलाए।
अपने ही,
भीतर का अँधेरा,
फैल जाता है,
बाहर भी।
धीरे - धीरे बढ़ते,
भीतरी अंधकार का प्रभाव,
बढ़ जाता है,
कुछ इस कदर,
कि प्रकाश से,
स्वयं ही,
बढ़ने लगती है ,
दूरी।
इस तरह,
पुतलियों को भी,
आदत हो जाती है,
अंधकार की।
सभी इन्द्रियाँ,
हो जाती हैं,
अंधकार के अधीन।
प्रकाश का जिक्र भी,
होने लगता है,
असह्य।
बन जाए,
कोई,
स्वेच्छा से,
अंधेरों का गुलाम,
तो उसे,
नन्हें से,
दीप के साहस,
और,
अथाह रश्मि के स्रोत -
सूरज,
की गाथा,
कोई कैसे सुनाए।

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