Tuesday 13 September 2016

परिचय के पश्चात

परिचय से पूर्व,
देखा था,
बस तुम्हारा चेहरा।
उस समय,
तुम्हारा चेहरा ही था,
तुम्हारा सम्पूर्ण वजूद,
मेरे लिए।
उसकी कोमलता,
रुक्षता,
बनाती थी,
उसे
भावपूर्ण या भावहीन।
वार्तालाप आरम्भ होने पर,
तुम्हारी आदतें,
विचार,
कौतूहल,
व्यवहार,
हँसी,
मुस्कान,
निश्छलता,
आदि भी,
बयाँ करने लगी तुम्हें।
इस बयाँ होने के क्रम में,
परिचय घनिष्ठ,
होता गया,
और चेहरा,
तुम्हारे असली वजूद के सामने,
पीछे छूटता गया।
अब तुम्हारा अर्थ,
था -
तुम्हारा चेहरा नहीं,
बल्कि,
तुम स्वयं।
परिचय परिवर्तित हो गयी थी,
प्रगाढ़ता में,
जब मुझे चोट लगने पर,
तुम्हारे मुँह से,
निकली थी,
कराह।
उस दिन हो गयी थी,
मित्रता की पुष्टि,
जब मैं रो रही थी,
और तुम्हारी आँखें भी,
छलछला उठी थीं।
अब तुम्हारा चेहरा,
मेरे लिए,
बन चुका है,
खुली किताब,
जिसे पढ़ती हूँ,
हर पल।
यहाँ तक कि,
तुम्हारी अनुपस्थिति में भी।
कोई अंतर नहीं पड़ता,
अब कुछ भी,
तुम्हारे,
कहने या न कहने से,
क्योंकि,
पढ़ती ही रहती हूँ,
हर पल,
तुम्हारे चेहरे और,
आँखों की भाषा।

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