Friday 29 April 2016

न्याय का मंदिर

ये क्या सुन रही है वह?
ये है जज का निर्णय,
इसी निर्णय के लिए,
अब तक,
संघर्ष कर रही थी वह?
ऐसे होते हैं,
न्याय के देवता?
इतनी बड़ी पदवी…….
न्यायाधीश !
और सोच?
इतनी संकीर्ण?
क्या ऐसा ही लिखा है,
कानून की किताबों में?
और यदि हाँ…….
तो वो पृष्ठ पलटकर,
दिखाएँ मुझे?
वो क्रोध से काँप रही थी,
पसीने से तर - बतर थी,
न्यायाधीश की कुर्सी की तरफ,
जिस तेजी से बढ़ी थी,
लगा था,
उसका खून पी जायेगी,
चार - चार लोगों ने,
पकड़ रखा था उसे,
वह खींचती चली जा रही थी,
उन चारों को अपने साथ।
निराशा और क्रोध के आवेग ने,
उसके शरीर की,
तमाम कोशिकाओं को,
सक्रिय कर दिया था,
क्रोधाग्नि की लपटें,
आँखों के रास्ते,
बाहर प्रकट हो रही थी।
कोशिकाओं की,
अति सक्रियता से,
उपजी ताकत,
चार लोगों को,
अपने साथ घसीट रही थी।
उसकी जलती आँखों से,
घबराकर न्यायाधीश,
अपनी कुर्सी से उठ,
तेजी से भागा,
सीधा गाड़ी में जा बैठा,
और ड्राईवर को,
गाड़ी चलाने का,
इशारा किया।
गाड़ी के पीछे,
थोड़ी दूर तक,
छटपटाती,
चिल्लाती हुई,
पूरी ताकत से,
स्वयं को,
लोगों की पकड़ से,
छुड़ाती हुई,
चलती गयी थी वह।
अत्यन्त ऊँची आवाज में,
चीख कर बोली थी -
“अरे कमीने,
तू जज कहता है,
खुद को,
चुल्लू भर पानी में,
डूब मर मुए।
उस नीच से मुझे,
शादी ही करनी होती,
तो पिछले पाँच सालों से,
इस न्याय - मंदिर के दरवाजे पे,
अपना मत्था टेके,
क्यों खड़ी थी?
न्याय का मतलब,
पता नहीं,
और,
चले हैं,
न्याय करने।
तभी उसकी नज़र,
उस पर पड़ी,
जिसने उसके जीवन में,
अँधेरा,अपमान,बदनामी,
उपेक्षा के इतने दाग दिए थे,
कि पलक झपकते ही,
उसके जीवन से,
अच्छा कहा जाने योग्य सबकुछ,
छिन गया था।
एक दिन पहले तक,
पूरा गाँव उस पर गर्व करता था,
आँगन में नीम के पेड़ के नीचे,
गाँव भर की औरतें इकट्ठी होतीं,
कोई उससे लिखना - पढ़ना सीखती,
तो कोई उसकी माँ से,
अचार, पापड़ और,
तरह - तरह के व्यंजन की विधियाँ सीखती।
जिस किसी को भी,
हिसाब जोड़ने में,
मदद की जरूरत होती,
उसके पास आती,
माँ - बेटी की खूब,
सराहना होती,
औरतें मुस्कुराकर कहतीं -
इनके बगैर तो,
एक भी काम नहीं हो पाता।
इस घटना के बाद,
सबने मुंह फेर लिया था,
जिस किसी से भी,
नज़र मिलाने की,
कोशिश करती ..
मुँह घुमाकर चल देतीं,
वो समझाना चाहती थी,
कि उसकी कोई गलती नहीं,
पर कैसे?
गाँव के लोगों ने,
समाज - बहिष्कृत करने की,
माँग रखी,
पंचायत ने,
गाँव वालों का समर्थन किया,
उसे पूरा विश्वास था,
जिस दिन उसे,
कोर्ट से न्याय मिलेगा,
सारे दाग धुल जाएंगे,
फिर से वो पहले जैसी,
ज़िन्दगी जी पायेगी।
वही नीच,
जिसने उसे कहीं का नहीं छोड़ा था,
और जिससे,
शादी कर लेने का फैसला,
अभी थोड़ी देर पहले,
जज ने सुनाया था -
सामने से चला आ रहा था,
कोर्ट के फैसले की ख़ुशी,
उससे छुपाये नहीं छुप रही थी,
उसे यकीन था,
थोड़ी हील -हुज्जत के बाद,
वह उससे शादी के लिए राजी हो जाएगी,
वैसे भी इतनी बदनामी के बाद,
कोई और लड़का उससे,
शादी को क्यों तैयार होता?
शेरनी की तरह,
गुर्राती हुई वह,
उसकी ओर,
झपटी थी,
घबराकर,
सर पर पाँव रखकर,
भागा था।
वह चिल्लाकर बोली थी -
जैसा तू है,
वैसा ही ये कुत्ता जज है,
तेरी और उसकी,
मानसिकता में,
कोई अंतर नहीं।
तूने क्या समझा था -
पैसे से कुत्ते जज का,
मुँह भर के,
तू बच जायेगा?
वो कमीना,
समझौता करवा कर -
मुझे तेरी बीबी बनने पर,
मजबूर करेगा,
आक्…….थू…….
थूकती हूँ मैं,
ऐसे जज पर,
और,
उसके ऐसे फैसले पर,
मुँह छुपाने की जरूरत,
मुझे नहीं,
तुझे,
कमीने जज को,
और,
उन सबको है,
जिनकी ऐसी सोच है….,
जो बलात्कारी से विवाह करवा कर,
न्याय की स्थापना करते हैं।
अरे मैं जज होती,
तो इतनी देर,
तू फाँसी पर,
झूल चुका होता।
इस कोर्ट में,
बड़ी उम्मीदें लेकर आई थी,
सोचती थी,
ये न्याय का मन्दिर है,
यहाँ पीड़ितों को,
न्याय मिलता है,
आज समझ रही हूँ,
अगर,
एक भी,
पीड़िता को,
न्याय मिला होता,
तो आज मैं,
पीड़िता ही नहीं होती,
अपराधियों को दण्ड मिला होता,
तो कोई बलात्कार करने की,
हिम्मत ही नहीं करता।
आज समझ पाई हूँ -
क्यों लड़कियाँ,
या तो खुद कुएँ में,
छलाँग लगा देती हैं,
या उस पापी को,
हँसिया से काट देती हैं,
इस कोर्ट - कचहरी में,
आकर,
और बेइज्जत होने के अलावा,
क्या मिलता है?
मुझे लगा था -
आत्महत्या करना,
गलत है,
कानून हाथ में लेकर,
उसका खून करना भी,
गलत है,
कोर्ट - कचहरी जाकर,
न्याय के लिए,
दरवाजा खटखटाना चाहिए,
मिल गया,
न्याय,
न्याय मिल गया -
हा हा हा हा….
जज तेरी बुद्धि को,
मैं कोसती हूँ,
सौ - सौ लाँछन देती  हूँ।
तेरे न्याय को मैं,
हरगिज़ नहीं मानती,
लेकिन मेरे न्याय से,
तुझे कौन बचाएगा?
आज से अपनी खैर मनाना,
शुरु कर दे।
अब इस न्याय के मन्दिर की,
असलियत जान गयी हूँ,
अब नहीं डरूँगी,
किसी से,
अरे,
खूनी, बलात्कारी और चोरों को,
तुम लोगों ने ही,
पनाह दी है,
ये ही तो हैं,
तुम्हारी तिजोरियाँ,
भरने वाले।
मैं तो नहीं भर पाऊँगी,
तुम्हारी तिजोरियाँ।
पकड़ लेना मुझे,
लटका देना फाँसी पर,
एक को मारकर भी फाँसी,
और सौ को मारकर भी,
उन सबका कत्ल करूंगी,
जो तेरी जैसी सोच वाले हैं।
हा हा हा हा…
जज साहब,
तूने तो रास्ता खोल दिया -
किसी छोरी से शादी करना चाहो,
वो राजी न हो,
तो उसका बलात्कार करो,
जज साहब आगे,
बात पक्की करा देंगे।
लोग कहने लगे -
सदमे से पागल हो गयी है,
पागलखाने ले चलो।
- अरे नालायकों,
पागल तो तुमलोग हो,
जो बलात्कारी और,
उसे पनाह देने वाले जज को,
जो इंसानियत का मतलब नहीं समझता,
कुछ नहीं कहते,
मुझे पागल कहते हो।
मैं उस जज के फैसले को,
नहीं मानती,
चाहे मुझे,
पागलखाने भेजो,
या जेलखाने।
तुम लोगों की नज़र में,
मैं पागल हूँ,
क्योंकि बलात्कार का शिकार होकर,
खुद को दोषी,
नहीं माना,
आत्महत्या नहीं की,
कानून हाथ में लेकर,
उसका खून नहीं किया,
समाज - बहिष्कृत होकर,
मेरे माँ - बाप ने,
खुद ज़हर खाकर,
मुझे भी ज़हर नहीं दिया।
मैं ही नहीं,
मेरा पूरा परिवार पागल है,
जिसने इस न्याय - व्यवस्था पर भरोसा किया,
न्याय के इंतजार में,
एक - एक पल,
मर - मर कर काटा,
और आज,
जज के फैसले पर,
ऐतराज़ किया।
ले चलो,
मुझे,
मेरे परिवार को,
जेलखाने,
पागलखाने,
जहाँ ले जाना है,
पर हम नहीं छोड़ेंगे,
उस कुत्ते को,
और,
उसकी वकालत करने वाले कमीने जज को।

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