Thursday 21 April 2016

अफ़सोस

उफ़…
खूबसूरत चेहरे की तलाश में,
भटके हुए थे तुम।
भला कैसे दिख सकता था,
तुम्हें वह खूबसूरत,
दर्पण सा स्वच्छ,
सोने जैसा चमकीला,
हीरे सा बेशकीमती,
वह विशाल हृदय,
जो था तुम्हारे बेहद करीब,
पर,
क्यों कसूरवार मानें तुम्हें,
देखने की भी तो हर व्यक्ति की,
अपनी सीमाएँ हैं न।
बड़े से बड़े नेत्र रोग विशषज्ञों ने,
ईज़ाद की हैं,
एक से बढ़कर एक नायाब,
दृष्टि प्रदायी यंत्र,
पर,
अफ़सोस कि,
इन तमाम यंत्रों से परे है,
वह अंतर्दृष्टि,
जो देख पाती है,
किसी व्यक्ति के हृ्दय को।
अधिकतर मामलों में,
देर-सबेर ही सही,
हो ही जाता है नज़र का इलाज़,
पर नजरिया ?
नज़र से कहीं,
बहुत ऊपर का मामला है यह,
वरना,
दिख ही जाना था,
तुम्हें अपने बेहद करीब,
वह विशाल, खूबसूरत,
पारदर्शी हृदय।

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