Tuesday 26 April 2016

आशंका

मेरी उम्मीदें बढाकर,
बढ़ा लिया है,
तूने अपना दायित्व।
बहुत आसान लगता है,
यह सब,
शुरु - शुरु में ।
धीरे-धीरे,
बदलते हैं,
जब हालात ,
समीकरण भी बदलते हैं,
बढ़ी हुई उम्मीदें ही,
अक्सर,
दुःख उत्पन्न करती हैं।
एक निस्संग,शांत,मूक,
अलग-थलग,अपरिचित,
व्यक्ति को,
इतना अधिक अपनापन,
प्यार,
आसानी से,
ग्राह्य नहीं हो पाता।
इसलिए,
कहती हूँ,
मत छीनो एक साथ,
मेरा स्वाभिमान और,
आत्मविश्वास,
रहने दो मुझे,
आत्मनिर्भर।
उम्मीदें मधुर स्वप्न में,
ले जाती हैं,
स्वप्न कितना भी मधुर हो,
वह सच नहीं हो सकता।
सच कटु होकर भी,
सच है।
सामान्य रूप से बढ़ने दो,
अपनी मित्रता,
जहां न किसी का अहम,
पल्लवित हो सके,
न कोई अपने को एहसानों के,
बोझ तले,
दबा हुआ महसूस करे।
न किसी के मन में,
आशंका हो,
न ही किसी के मन में,
दूसरे के प्रति,
अविश्वास का भाव।

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