Tuesday 18 October 2016

हमलोग

कभी - कभी,
लगता है…
कि ये दुनिया,
कितनी सुन्दर है,
पर फिर कभी,
लगता है,
इसके विपरीत।
आखिर,
हमलोग ही तो हैं,
इसके लिए ज़िम्मेदार।
ईश्वर कह लें,
या कोई शक्ति,
एक नया शब्द,
गॉड पार्टिकल भी है,
सरल शब्दों में कहें तो प्रकृति,
इनमें से कुछ भी,
ने तो,
वाकई बनाया,
सब कुछ,
बहुत सुन्दर।
और हमें भी तो,
उसी ने,
बनाया है,
कहाँ था उसे भी अंदाज़ा,
हमारी अथाह,
स्वार्थपरता का,
जिसमें आकण्ठ डूबकर,
काटने लगे हम,
उसी डाल को,
जिस पर बैठे थे।
आखिर,
हम क्यों नहीं कर पाते,
इस सुन्दर दुनिया की कद्र,
क्यों चढ़ जाता है,
आँखों पर टिन का चश्मा,
कहाँ से भर जाता है,
हमारे,
हृदयों में मैल?
क्यों हमारी दुनिया,
सीमित हो जाती है,
बस अपने ही,
इर्द - गिर्द।
छोटा ही,
होता जाता है,
यह दायरा,
सिमट जाते हैं,
निज शरीर तक,
जिसमें आत्मा जैसी,
अनावश्यक वस्तु का,
कोई वजूद नहीं होता,
बनाने लगते हैं,
रिश्तों को सीढ़ी।
न जाने क्यों,
अपनों की,
लाशों पर,
खड़े होकर,
ऊँचा दिखना चाहते हैं?
दुर्लभ होती जा रही है,
निश्छलता,
ईमानदारी।
कोसों दूर जा रहे हैं,
अच्छाइयों से हम।
दूरी जितनी ही,
बढ़ती जा रही है....
हम लोग खुश हो रहे हैं,
कह रहे हैं,
हम आगे बढ़ रहे हैं

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