Tuesday 27 December 2016

अनचाही से मनचाही

खुले शब्दों में की थी कामना अपने ही पूर्वजों ने,
अपने घर पुत्र और पड़ोसी के घर पुत्री के जन्म की।
हाँ बाँटनेवालों ने कुछ भी कहाँ छोड़ा था,
औरतों के लिए ? न शस्त्र, न शास्त्र,
न खुलकर हँसने - बोलने, प्रश्न करने का अधिकार।
न पैतृक संपत्ति,न ही छाता और चरणपादुका जैसी,
सिर और पैर की सुरक्षा के साधन।
कहने को दिए थे दो घर,
एक में शर्त थी पैदा होने, दूसरे में मरने की,
घरों के मालिक थे पिता, भाई,पति और बेटे।
उसके हिस्से थी चूल्हा - चक्की,ऊखल - मूसल, ढेकी
मर्दों के लिए था दूध और उसके लिए गोबर,
जिससे लीपती थी घर - आँगन मुँह अँधेरे उठकर,
दिन भर जिसे पाथ कर जुटाती थी ईंधन,
बनाती थी नाना प्रकार के व्यंजन,
पर खाती थी सबको खिलाकर बचा - खुचा।
खटते खटते जाने कब बाँचने लगीं अक्षर,
जी तोड़ श्रम करती हुई देने लगीं महारथियों को टक्कर।
पकी ईंट सी तैयार हो निकलने लगीं भट्टियों से,
विराजमान होने लगीं बड़ी कुर्सियों पर।
बनाने लगीं अपनी पहचान ही नहीं अपना घर भी,
लाने लगीं देश के लिए मेडल,
करने लगीं माता - पिता, गाँव और देश का नाम रौशन।

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