Wednesday 29 April 2015

कब तक यूँ ही


वह जानता था सामने वाले की ताकत,
भीतर ही भीतर डरता भी था,
बहुत उससे,
पर क्या करता आखिर वह ?
कब तक यूँ ही डरता हुआ,
जीने को मजबूर रहता वह।
आखिर,एक दिन असह्य हो गया,
उस दमन-चक्र को और सहन करना।
पता नहीं,कहाँ से आ गयी थी,
उस दिन इतनी ताकत उसमें,
अंज़ाम की परवाह किए बिना उसने,
पकड़ ली थी, 
उस ताकतवर की गिरेबान,
बिना यह सोचे कि उसके एक हाथ ज़माने पर,
वह पानी माँगने के लिए भी,
नहीं उठ पाएगा।
उसके एक फोन कर देने पर,
उस पर कोई भी आरोप लगा,
एक पल में अंदर कर दिया जाएगा।
नहीं थी आज उसे किसी भी,
परिणाम की चिंता,
हाँ यदि कुछ था,
तो वह था स्वयं के,
जीवित होने का एहसास।
उठ गया था उसके मन में किसी गहराई से यह प्रश्न,
आख़िर कब तक समझौते के सहारे,
वह ढोएगा अपना जीवन।
रोज़-रोज़ नहीं सह सकता अब यह सब,
न जाने कहाँ से आ गयी थी तन-मन में,
एक गजब की ऊर्जा,
आज उसकी ऊर्जा देख,
सर झुकाकर,
चुपचाप बगल से निकल गया था,
वह ताकतवर व्यक्ति।         

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