सहज है क्या चलते जाना,
बिना रुके,
कभी तेज,
तो कभी धीमे कदमों से,
आखिर टाँगें हैं,
थकती हैं,
विश्राम माँगती हैं।
आँखें हैं,
नज़ारों का आनंद माँगती हैं,
साँसें हैं,
चलते चलते,
फूलने लगती हैं,
गला भी प्यास से,
सूखने लगता है।
सर धूप से तपने लगता है,
तो कभी बरसात में भींगने,
लगता है।
उफ्फ!
कड़कती ठंड में तो,
ओस और पालों से भर जाता है।
नींद का बोझ,
समूचे जिस्म पर,
जमाने लगता है यूँ कब्ज़ा,
कि एक कदम बढ़ाना भी,
असंभव प्रतीत होता है,
पर,
संकल्प तो संकल्प है।
यही तो देती है,
इच्छा-शक्ति,
को संजीवनी,
प्रयास तो प्रयास है,
यही तो पूर्ण करवाती है,
सारे लक्ष्य।
शारीरिक कमजोरियों पर विजय,
सहज नहीं........,
हाँ ...
सहज तो नहीं,
पर हाँ,
सिर्फ शरीर के माध्यम से,
कहाँ होती हैं यात्राएं,
वहाँ तो सारा व्यापार ही,
मानसिक शक्ति से हो रहा होता है नियंत्रित,
बहुत सहज है,
शरीर का दास हो जाना,
पर,
शरीर को दास बना लेना,
असंभव भी नहीं।
बिना रुके,
कभी तेज,
तो कभी धीमे कदमों से,
आखिर टाँगें हैं,
थकती हैं,
विश्राम माँगती हैं।
आँखें हैं,
नज़ारों का आनंद माँगती हैं,
साँसें हैं,
चलते चलते,
फूलने लगती हैं,
गला भी प्यास से,
सूखने लगता है।
सर धूप से तपने लगता है,
तो कभी बरसात में भींगने,
लगता है।
उफ्फ!
कड़कती ठंड में तो,
ओस और पालों से भर जाता है।
नींद का बोझ,
समूचे जिस्म पर,
जमाने लगता है यूँ कब्ज़ा,
कि एक कदम बढ़ाना भी,
असंभव प्रतीत होता है,
पर,
संकल्प तो संकल्प है।
यही तो देती है,
इच्छा-शक्ति,
को संजीवनी,
प्रयास तो प्रयास है,
यही तो पूर्ण करवाती है,
सारे लक्ष्य।
शारीरिक कमजोरियों पर विजय,
सहज नहीं........,
हाँ ...
सहज तो नहीं,
पर हाँ,
सिर्फ शरीर के माध्यम से,
कहाँ होती हैं यात्राएं,
वहाँ तो सारा व्यापार ही,
मानसिक शक्ति से हो रहा होता है नियंत्रित,
बहुत सहज है,
शरीर का दास हो जाना,
पर,
शरीर को दास बना लेना,
असंभव भी नहीं।
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