Wednesday 30 September 2015

हम संभ्रांत लोग


तुम्हें इस बात का है दुख,
कि तुम औरों को नहीं समझ पाये,
पर,
हम तो,
यह सोचकर उदास हैं,
कि हम स्वयं को भी,
नहीं समझ सके। 
एक प्रश्न है तुमसे भी,
न -न सिर्फ तुम से ही नहीं,
तुम सभी से-
क्या तुम सब ने समझा है,
स्वयं को। 
शायद तुम सब कह दो -हाँ,
किन्तु-
निष्ठा और ईमानदारी से कहना,
क्या यह सच है?
अब तुम्हें एहसास हो रहा  होगा,
कि कितना कठिन है,
जान पाना इस मन को,
मन को तो फिर  भी,
समझ लें,
पर............
कैसे समझें,
इस मन में, 
छिपे,
उस नन्हें अन्तः मन को,
कैसे जानें,
उसे,
जो हमारे ही तन-मन का,
दबा-कुचला  हिस्सा है। 
कैसे पहचानें उसे,
जिससे हैं हम,
नितांत अनभिज्ञ। 
वह बेचारा कभी-कभी,
कोनों-झरोखों,
से झाँककर,
देख लेना चाहता है,
बाहर की दुनिया। 
हिम्मत बढ़ाकर,
हो जाना चाहता है,
हमारे पूर्ण,
सौम्य-संभ्रांत,
व्यक्तित्व पर हावी। 
पर............
हमारी सतर्क निगाहें,
उसे धक्का दे देती हैं,
फिर से अंदर की तरफ। 
उस बेचारे की,
इछाओं,भावनाओं को,
बारम्बार,
हम कुचलते-मसलते और दबाते हैं। 
उसके भोलेपन पर,
चेतन मन को,
अनजाने ही,
गुस्सा आ जाता है। 
उस नादान को अक्सर,
चेतन मन,
सख़्ती से डपट देता है,
और कितनी सफाई से,
छिपा लेता है,
भावों को,
और कहता है-
ऐसा तो हम कभी,
सोच भी नहीं सकते। 
पर यदि,
दिख जाता है कभी, 
 दूसरे का झाँकता अन्तः मन,
तो लगाते है हम,
ज़ोर से ठहाके।     

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