Saturday 26 September 2015

अब और नहीं

आज देखने आए थे,
उसे कुछ लोग,
बैठा दिया गया था उसे,
पूरी तरह सजाकर,
ठीक उसी तरह........
जिस तरह,
सजाते हैं,
दुकानों में सामान।
या फिर,
पशु मेले में...........
गाय-भैंस आदि।
घूर रही थीं,
उसे एक साथ,
कई-एक नज़रें........
भीतर तक काँप गयी थी वह,
वे नज़रें थीं,
या एक्स-रे मशीनें.........
उफ्फ,
बहुत-अजीबोगरीब,
लगा था,
अंतस्तल की गहराइयों तक,
कट कर रह गयी थी वह,
फिर,
आरंभ हुआ था..........
प्रश्नों का सिलसिला......
अलबत्ता !
प्रश्न पूछने वालों में से,
कोई भी नहीं था,
किसी भी क्षेत्र का विशेषज्ञ।
पर,
हर विषय,
हर क्षेत्र से,
सही-गलत प्रश्नों की,
झड़ी लगा दी थी,
उन लोगों ने।
एक उत्तर पूरा होते-न-होते,
अगला प्रश्न,
उछाल दिया जाता।
मन में आया था उसके,
चीख पड़े उन लोगों पर,
दिखा दे बाहर का रास्ता....
पर, 
सहम कर रह गयी थी,
जब देखा था,
पिता को एक कोने में,
चुप-चाप खड़े,
माँ को आशा-निराशा के असमंजस में,
जूझते मन को,
उंगली में आँचल लपेट कर संभालते,
भाई भी सिर झुकाये खड़ा था.......
आखिर,
क्या कमी है मुझमें,
क्यों इतना डरे-सहमे हैं,
ये सब के सब।
तभी..........
लड़के की बहन ने कहा था-
सैंडल उतारिए !
मन में आया था-
सैंडल उतार कर दे मारे,
उसके सिर पर........
इतने में,
फिर,
नज़रें मिली थीं पापा से,
और भर गयी थीं,
चारों आँखें........
आँखों ही आँखों में,
दागा था सवाल-
इसी दिन के लिए,
पढ़ाया था पापा ?
इशारे से दिखा दिया था,
मेहमानों को रास्ता,
बस............
अब और  नहीं,
बिल्कुल नहीं,
बिल्कुल भी नहीं,
नहीं..........
नहीं........

  

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