सुन-सुन कर पक गए
हैं कान……….
भीतर जाओ,
यहाँ मत बैठो,
धीरे चलो,
आहिस्ता बोलो,
ठहाके मत लगाओ,
मुस्कुराकर हँसो।
क्यों भला ?
क्यों न हिरनी की
तरह वो कुलांचे भरे,
उछले-कूदे,
दौड़े-भागे।
क्यों न खुलकर प्रकट
करे,
अपने मनोभाव।
क्यों न
खिलखिलाकर हँसे,
एक स्वाभाविक
उन्मुक्त हँसी।
उसकी हँसी-बोल,
आने-जाने,
उठने-बैठने और चाल
पर,
क्यों हो दूसरों
का नियंत्रण ?
क्यों भला ?
उसे अच्छी और
बुरी होने का,
प्रमाण देंगे,
वे लोग,
जिनकी उच्छृंखलता
के उदाहरण,
दिखाई पड़ते हैं,
प्रतिदिन।
नहीं दबेगी वह,
इन जुमलों से,
नहीं देगी किसी
को अधिकार,
किसी को भी नहीं,
उसे किसी साँचे
में ढालने का।
क्यों भला ?
वह जैसी है,
वैसी ही रहेगी,
जिएगी खुलकर,
अपना स्वाभाविक
जीवन।
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