Thursday 4 February 2016

ज़माना बदला है


ज़माना बदला है,
हाँ...........
ज़रूर बदला है।
अब नहीं होता,
लड़के-लड़की में भेद-भाव,
पर.........
कब बदलेगा ज़माना?
उन लड़कियों के लिए,
जिन्हें ठिठुरती ठंड,
और
तपती धूप में,
निबटाना पड़ता है,
दस-दस कोठियों का काम,
ताकि वे अपने भाई के,
स्कूल की फीस भर सकें।
भला उन लड़कियों के लिए,
कब बदलेगा ज़माना?
जो स्कूलों-कॉलेजों में,
सुबह-शाम झाड़ू-पोंछा,
लगाती हैं,
परीक्षा के दिनों में,
अपने हमउम्र बच्चों को,
परीक्षा कक्ष में,
थमाती हैं,
पानी का ग्लास।
घर लौट कर   
करती हैं,
सारा काम,
और............
उनकी गाढ़ी मेहनत की कमाई,
अक्सर,
कम पड़ती है,
घर की ज़रूरतें पूरी करने के लिए।
कब बदलेगा ज़माना,
उन लड़कियों के लिए,
जो दफ़्तरों में,
ओवरटाइम और घर में फुलटाइम काम करके,
घिसती चली जाती हैं,
खो देती हैं पूर्णतः,
अपना स्वास्थ्य और सौंदर्य,
दे देती हैं अपनी समस्त खुशियों की कुर्बानी,
घर की जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए,
पचास की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते,
गुजर जाते हैं माता-पिता,
भाई-बहन खो जाते हैं,
अपनी-अपनी दुनियाँ में,
और रह जाती हैं,
वे अकेली।
कब बदलेगा ज़माना?
उन नवजात कन्या-शिशुओं के लिए,
जिनके जन्म का उत्सव इस दिखावे में,
मनाया तो जाता है-
कि देखो जी!
हम नहीं करते,
भेद-भाव बेटे-बेटी में,
पर उस उत्सव में नहीं होता वैसा उल्लास।
आखिर,
कब बदलेगा ज़माना?
उन बड़े घर की लड़कियों के लिए,
जहाँ नहीं है,
कोई गरीबी,मजबूरी और अभाव,
पर,
उन घरों के लोगों की नाक,
इतनी नाज़ुक होती है कि
बेटी के सर उठाकर चलते ही,
कटकर गिर जाती है।
हाँ सचमुच बदल गया है ज़माना,
अब नहीं होता,
लड़के-लड़की में भेद-भाव।   
  







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