Thursday 4 February 2016

कोशिशें


बहुत दुनियादारी तो,
नहीं आती उसे,
पर,
इतना जान चुकी है………
कि
गुलामी तो गुलामी ही है,
चाहे वह अपनों की ही क्यों न हो?
चाहती है वह भी अपनी मर्ज़ी से जीना।
हो सकता है,
बहुतों को,
उसकी ये जिद,
गुस्ताखी लगे,
पर दूसरी तरफ़,
हैं ऐसे भी बहुत……..
जो सराहते हैं,
उसकी कोशिशों को।
औरों की अपेक्षाओं पर,
खरी उतरने के लिए,
उसने जो भी किया,
वो सदैव कम पड़ा,
अब तो उसकी कोशिश है,
आत्मनिर्भरता की ओर,
कदम बढ़ाने की,
क्योंकि,
अब उसने अपनी बुद्धि और,
 श्रम की कीमत जान ली है,
पराश्रित हो,
नहीं प्रसन्न हो जाया,
करेगी.......
वस्त्राभूषणों  से,
गुड़िया सी जब भी,
सजाई गयी है वह,
उसकी क्षमताओं को,
कम ही आँका गया।
जीवन अनुभव से यह भी,
जान चुकी है,
कि दोहरे मानदंडों को,
अब और स्वीकार करने,
और सांचों में ढलने से,
कहीं बेहतर है,
अपनी अस्मिता को,
स्वीकृति देना।








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