हाँ स्वीकार करती हूँ,
एकतरफा नहीं था तुम्हारा
प्यार,
समझा था मैं ने भी तुम्हारे
प्यार को,
बहुत चाहत थी तुम्हारे लिए,
मेरे हृदय में भी।
पर फिर भी,
मना कर दी,
तुम्हारी सगाई की अंगूठी
मैं ने,
जानते हो क्यों?
क्योंकि,
तुम लेकर आए थे,
जो कीमती अंगूठी उस दिन
मेरे लिए,
वो तुम्हारे लिए इतनी
बेशकीमती थी,
कि उसकी चिंता हो गयी थी,
मुझसे ज्यादा जरूरी।
बार-बार पॉकेट में,
हाथ डाल तुम,
,
सुनिश्चित कर रहे थे उसकी
उपस्थिति।
उस दिन कहाँ देख पाये थे
तुम,
एक बार भी गौर से मेरी
तरफ।
डर गयी थी मैं बुरी
तरह...........
भीतर ही भीतर।
मैं अल्हड़ लड़की,
नहीं संभाल सकती,
इस कीमती अंगूठी का बोझ,
नहीं सह सकती,
एक वस्तु के बरक्स,
मेरे व्यक्तित्व की ऐसी
उपेक्षा।
हाँ............सुन लो,
मैंने सगाई कर ली है,
एक अनजान युवक से,
जो आया था,
अचानक ही,
एक रिश्तेदार के माध्यम से,
तुम्हें यह बता दूँ कि
उसकी अंगूठी थी बेहद सस्ती,
और उसका ध्यान,
अंगूठी संभालने पर नहीं,
मेरी उंगलियों पर था,
उसकी आँखों में झलक रही थी,
मेरे लिए प्रशंसा,
और .........
अत्यंत विनम्रता पूर्वक
माँगा था उसने,
मेरे पिता से मेरा हाथ।
No comments:
Post a Comment