Thursday 4 February 2016

मत करो प्रशंसा


नहीं चाहती हैं अब,
और प्रशंसा स्त्रियाँ,
जान चुकी हैं,
मीठे बोलों में छुपी,
कड़वी सच्चाई को।
पहचान चुकी हैं,
अदृश्य बंधनों की कसावट को।
हाँ..............
प्रशंसा कर-करके,
उन्हें प्रसन्न रखने के यत्न,
अब हो गए हैं,
अत्यंत पुराने।
अच्छी बेटी,बहन,बहू,पत्नी और माँ बनने की बड़ी कीमतें,
वे अदा कर चुकी हैं,
पहले ही।
क्या उनके कर्तव्यों का,
है कहीं कोई अंत ?
कोई बताए तो सही।
रोपाई-निराई से कटनी तक,
कुटाई-पिसाई से रसोई तक,
बच्चों का लालन-पालन,
बुजुर्गों की सेवा ,
पशु-पालन,पानी भरना,
बर्तन-कपड़ों की धुलाई तक।
करती चली जाती हैं,
मुस्कुराते हुए जीवन भर,
पर,
नहीं मिलता,
इन सबके बदले,
कोई खास अधिकार।
बस!
यदा-कदा, कर दी जाती है,
थोड़ी सी प्रशंसा,
हाँ...
पूरा ध्यान रखा जाता है कि,
प्रशंसा कहीं अधिक न हो जाए।
क्योंकि,
भय है कि,
प्रशंसा की मात्रा बढ़ने से,
उनका मन भी बढ़ सकता है,
और,
इस तरह वे,
सिर चढ़ सकती हैं।
अब बहुत हुआ,
बस !
बंद किया जाए,
झूठी प्रशंसा कर,
उन्हें कमजोर बनाने का सिलसिला।
यदि सचमुच कृतज्ञता है,
तो दो सही मायने में समानता।
बहुत सुन चुकी हैं वे,
अपने रूप की प्रशंसा,
जो स्वीकारते हो,
सचमुच,
उसके अस्तित्व को,
तो करो सम्मान,
उसकी बुद्धिमत्ता का।
बहुत हो चुकी,
उसकी पाक-कला की प्रशंसा,
यदि वाकई है कद्र?
तो करो सम्मान उसकी कर्मठता का और –
छोड़ दो पूछना यह सवाल-
आखिर! दिन भर करती क्या हो?   






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