Wednesday 15 March 2017

नतमस्तक



मन का कोई छोर,
पहुँच चुका है शायद,
तुम्हारे हाथों तक.......
कभी-कभी,
जिसे पकड़,
खींचते हो मुझे अपनी तरफ,
और,
कर देते हो,
मेरे मन को अशांत !

तुम भी नहीं अनभिज्ञ इन सब से,
तुम्हारी बोलती आँखें,
खोल देती हैं वो गहरे राज भी,
जिसे सुनने को,
तरसते हैं मेरे कान।

पूर्ण आश्वस्त हो तुम,
यह मान,
कि समझ लेती हूँ मैं,
तुम्हारी हर  बात,
तुम से भी पहले।

भर देना चाहती हूँ,
तुम्हारे जीवन का,
हर पल खुशियों से।

हँसी आती है,
आता है गुस्सा भी,
साथ ही आशंका...

हो न जाएँ कहीं,
भावनाएँ इतनी सक्षम,
कि कर दे हमें,
नतमस्तक,

एक-दूसरे के समक्ष।  

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