Wednesday 15 March 2017

पुराने दिन

ओह,
कहाँ समझ पाओगे मुझे,
क्योंकि,
हमारे दिलो - दिमाग,
के पैटर्न की मैचिंग ही नहीं है।
मैं हँसती हूँ,
तुम्हें सुखी देख,
तुम अपना चेहरा गंभीर बना लेते हो,
तुम्हें लगता है,
कुछ माँगने आई है।
मैं तुम्हारी ओर बढ़ाती हूँ,
हाथ,
यह सोचकर,
कि तुम से कहूँगी,
चलो ...
बहुत हुआ काम,
अब मेरे साथ सैर पर चलो।
पर तुम ..
मुझे गहरी नज़र से देखते हो,
और सोचते हो,
मुझे कुछ काम होगा...

याद हैं ?
वो पुराने दिन....
घंटों मेरे लिए,
धूप में इंतजार किया करते थे,
तुम्हें शहर जाना था,
अपनी बालियाँ बेचकर,
तुम्हारे लिए सूट लेकर आई थी,
माँ की मार खाकर भी,
मुस्कुरा रही थी, 
क्योंकि मेरी आँखों में,
तुम्हारी छवि थी।
लगता है,
सचमुच भूल गए तुम,
आम के बगीचे,
झूले,
तालाब किनारे की हरी घास,
और मेरे हाथों की कशीदाकारी से,
सजे सुन्दर रुमाल।
हाँ........
आगे बढ़ने के लिए,
पुराने दिन और,
पुराने लोग.....
दोनों को ही,
पैरों तले रौंदना पड़ता है।
चलो,
यहाँ तक मैं ने ,
समझा लिया मन को।
पर ये क्या कह दिया,
 आज तुमने,
मैं तो सिर्फ,
तुम्हें देखने आई थी,
तुम्हारी पसंद के बेसन के लड्डू लेकर,
तुमने कैसे कह दिया ?
आने का परपस बताओ,
चापलूसी की जरूरत नहीं है।












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