Saturday 26 November 2022

फिरकी

 फिरकी


काम निबटाते-निबटाते

निबट जाती हैं

स्त्रियां

पर नहीं

निबट पाता

उनके हिस्से का काम

तमाम उम्र

खटकर 

बना देती हैं

इस धरती को

थोड़ा और उर्वर

आसमान की

नीलिमा को

गहरे परतों में

सजाकर

चिलचिलाती धूप

से सबको

बचा लेने को

एक झीना

आवरण सजा

देती हैं

उनका दिल

समुद्र है

जिसमें भाव

अनगिनत रत्न

की तरह

जगमगाते हैं

उन्हें किलकारी

प्रिय है

तो बांटती

चलती हैं

खिलौने, मिठाई

टॉफियां और

चॉकलेट

उन्हें सुगंध और

रंग प्रिय हैं

इसलिए चारों

ओर लगाती

चलती हैं

फुलवारी

कराह नहीं

सुन सकती हैं

काँटे चुन लेती हैं

चुटकियों से

मखमली

घास रोपकर

सबके तलवों को

कटने-फटने

से बचाने के

यत्न में

जुटी रहती हैं

अपनी भूख

और नींद

गंवाकर

सबके भोजन

चादर-कम्बल

मसहरी की

व्यवस्था में

हलकान हुई

जाती हैं

उनका प्रशिक्षण

शुरू हो

जाता है

माँ के गर्भ

से ही

माँ को अपना

ख्याल रखने को समझाती हुई वह

धीरे – धीरे

माँ जैसी ही

जुझारू-कर्मठ

दिन-रात

एक करनेवाली

फिरकी

बन जाती है

फिर सामाजिक

अनुकूलन में

ढलकर

रही सही कसर

पूरी होती है

और वे

बन जाती हैं

पूरी सुगढ़

बहुत बार

काम की उपेक्षा

की योजना

बनाती वह

स्वयं

उपेक्षित होती

चली जाती हैं


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