वह छोटी सी चिड़िया,
आकर बैठ जाती है,
खिड़की पर,
फिर फुदक कर
आ जाती है,
पहले टेबल,
और फिर पलंग पर।
मुझे अच्छा लगता है-
उसका आना,
बैठना,
और उसकी हिम्मत का,
यूँ बढ़ते जाना।
मन में आता है,
उसे कुछ दूँ खाने को,
पर मेरे उठते ही,
उड़ गयी वह फुर्र से,
शायद उसे नहीं था भान,
मेरी उपस्थिति का।
पलंग पर,
एक प्लेट में,
चावल के दाने डालकर,
बैठ गयी हूँ,
एक अंधेरे कोने में,
चुप्पी साधकर,
मन ही मन कर रही हूँ,
प्रतीक्षा,
काश! आ जाए वह फिर से,
चुग ले इन दानों को,
काश! काश!
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