Tuesday 31 March 2015

अभाव


घंटों रोया था वह,
जब नहीं पा सका था,
अपनी पसंद की साइकिल।
पिताजी ने मनाने की,
भरसक कोशिश की थी,
दिलाई थी-
आइसक्रीम, चॉकलेट, लॉलीपॉप
वगैरह......
पर,
नहीं माना था वह,
अपनी ज़िद पर था,
लगातार कायम,
क्योंकि उसके दिल में,
तो बस,
वही साइकिल   
बस गयी थी।
नहीं था उसे कोई सरोकार,
साइकिल की कीमत,
या पिता की आमदनी से।
उसे चाहिए था तो बस,
चाहिए था।
पिताजी मना-मना कर,
चुप हो गए थे,
और वह रो-रो कर।
रोना उसने बेशक,
 बंद कर दिया था,
 पर,
उदास अब भी था।
बड़े होने के साथ,
धीरे-धीरे वह,
समझने लगा था-
पिता की मजबूरियों को,
गरीबी, अभाव और,
इनसे उपजी,
समस्याओं को।
जी-जान से पढ़ने लगा था,
 अब वह,
मन ही मन तय किया –
माता-पिता को,
 दुनियाँ की सारी खुशियाँ,
चाहे वह,
 जहाँ कहीं भी मिलती हों,
लाकर देगा।
पर, उसकी पढ़ाई के,
 बीच में ही,
अचानक..........
 चल  बसे थे पिताजी,
नहीं हो पाया था उसका,
पिता से-
उनके अंतिम क्षणों में,
कोई संवाद।
पता नहीं,
क्या कहना चाह रहे होंगे,
जाते-जाते।
बाद में माँ से पता चला था-
उसे ढूँढा था उन्होंने,
कहा था-
किसी को भेज दो उसके पास,
पर हाँ, मेरी खराब हालत का,
ज़िक्र न करे,
उसकी परीक्षाएं हैं,
बस किसी बहाने,
परीक्षा के बाद उसे,
घर ले आए।
पर, उसके आते-आते,
सचमुच देर हो गयी थी,    
लुट गया था वह,
एकदम से।
मासूम कंधे,
जिम्मेदारियों के बोझ से,
झुके जा रहे थे।
हमेशा के लिए टूट गया था-
रूठने-मनाने का क्रम।
माँ के चेहरे पर,
स्थायी उदासी देख वह,
मन ही मन रोता,
उन्हें हँसाने की कोशिश करता,
 पर वह,
हँसने वाली बात पर भी,
रो पड़तीं थीं।
चुपचाप बैठ जाता था माँ के पास,
कह नहीं पाता था,
शब्दों से कुछ भी,
बाँट लेना चाहता था,
माँ के दुखों को,
और, धीरे-धीरे,
सामान्य होने लगीं थीं माँ,
पढ़ने लगा था वह भी,
नए सिरे से,
खूब मन लगाकर।
पढ़ाई और घर का खर्च जुटाने के लिए,
करने लगा था,
कड़ी मेहनत,
और,
मेहनत रंग लाई,
धीरे-धीरे,
बदली परिस्थितियाँ,
मिट गए अभाव,
पर माँ,
बूढ़ी होतीं चली गईं,
और एक दिन,
वह भी उसे छोड़ गईं।
आज उसके पास हैं,
वो सारी सुख-सुविधाएँ,
जिनके लिए वह कभी,
तरसा करता था,
पर,
दूर जा चुका है वो प्यारा बचपन,
खो गए हैं,

सर-आँखों पर रखनेवाले माता-पिता।      

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