कुछ पाने की जिद थी उसे,
शायद वही,
जिसे लोग आमतौर पर,
सफलता कहते हैं।
उसने केंद्रित कर लिया था,
अपना पूरा ध्यान,
उसी एकमात्र लक्ष्य पर,
और जुट गया था प्रयास में,
या जुत गया था-
कोल्हू के बैल की तरह।
खो दिया था सुख-चैन,
भूल गया था हंसना-मुसकुराना,
नए कपड़े पहन,
खुद को आईने में निहारना।
धीरे-धीरे छूट गए थे,
संगी-साथी,
नाते-रिश्तेदार।
सब पीठ पीछे हँसते थे,
उसकी हालत पर,
पर.....
कहाँ थी उसे,
इन सबकी परवाह,
वह तो बस !
बनना चाहता था वही,
जो बनने की उसने,
ठान रखी थी।
धीरे-धीरे छूट गए थे,
संगी-साथी,
नाते-रिश्तेदार।
सब पीठ पीछे हँसते थे,
उसकी हालत पर,
पर.....
कहाँ थी उसे,
इन सबकी परवाह,
वह तो बस !
बनना चाहता था वही,
जो बनने की उसने,
ठान रखी थी।
लेकिन लक्ष्य की प्राप्ति,
होती जा रही थी कठिन से कठिनतर,
क्योंकि,
उस सफलता के ताले की,
चाबियाँ थीं,
कुछ ऐसे लोगों के हाथों में,
जिन्हें मेहनती,
और ईमानदार लोगों की,
नहीं थी कद्र,
उन्हें तो पहचान थी,
बस! अपने लोगों की।
जिन्हें साम-दाम,
दंड,
भेद के द्वारा,
बिठा देते थे वे,
उन कुर्सियों पर,
जिन तक पहुँचने के लिए,
कुछ प्रतिभाशाली लोग,
कर देते थे,
अपना जीवन क़ुरबान।
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