Sunday 29 March 2015

मुझ सा निरीह व्यक्ति

सुना था उसे,
बोलते हुए मैं ने।
एक-एक बात पर,
ज़ोर देकर कही थी,
उसने अपनी हर बात।
सुनने वाले आ चुके थे,
उसकी बातों में,
और,
अधिकतर लोग,
उसे भक्ति-भाव से,
निहार रहे थे,
सिर हिला-हिलाकर,
सहमति जता रहे थे।
आश्चर्यचकित था मैं,
उसकी वाक् कला पर,
किस प्रकार उसने,
बातों को आकार दिया था।
बार-बार दावा किया था उसने,
सच बोलने का।
किन्तु नहीं समझ पा रहे थे लोग,
कि सच के भी होते हैं,
विविध आयाम !
और, जब
सच को आधा छिपा,
आधा झूठ जोड़ कर,
गढा जाता है किस्सा,
तब निश्चित ही बदल जाते हैं आयाम।
जिस चतुराई से उसने,
दिखाना चाहा था सच को,
उसे दिखाने में,
सफल हो गया था........
लोग भाव-विभोर थे,
मैं हतप्रभ....
मेरे भीतर थी,
घनघोर छटपटाहट...
क्योंकि मुझे ज्ञात था,
उसके सच के पीछे का,
कड़वा सच।
बेचैनी में मेरी मुट्ठियाँ बंध गईं,
दाँत भिंच गए,
चक्कर आने लगे,
किसे दोष दूँ ?
चालाक वक्ता को,
भोली श्रोता को,
या फिर,
स्वयं जैसे निरीह व्यक्ति को,
जो सबकुछ जानने के साथ,
यह भी जानता है,
कि नहीं जीत सकता वह,
उन ताकतवरों से।
विरोध करने पर उसे,
शायद,
पागल बता दिया जाएगा,
या फिर कहीं,
जान से ही मार दिया जाएगा..........
इन्हीं उलझनों में उलझा,
मुझसा  निरीह व्यक्ति,
खड़ा है.......
एक कोने में
सिमटकर,
चुपचाप............ 

2 comments:

  1. Replies
    1. thanks sumdha.Many times we face these situations and feel helpless.

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